पाती परिचय रोज तेरा




हे प्रभो
मैं हूं अपरिचित तेरे रूप से
जानती हूं बस कि इतना
तू है यहीं कण - कण बसा
सृष्टि के हर रूप में
ये चमकते चांद-तारे
उदित दिनकर भुजा पसारे
ये चहकते पंछी सारे
तेरे रूप का विस्तार हैं
नदियों के कलकल प्रवाह में
खिलते पुष्पों की सुगंध में
पाती परिचय रोज तेरा
है तेरा हर ओर बसेरा
ये जलधि की तरंगें
ये पर्वतों की ऊंची श्रंगे
ये तितलियां और भृंगे
करती आह्लादित मन मेरा
परिचित कराती ये रूप तेरा
शक्ति का तू अनंत पुंज है
हर दिशा तेरी ही गूंज है
मैं अकिंचन क्षुद्र प्राणी
वंदन करती जोड़ पाणि
तेरी अनंतता का न बोध मुझको
ढूंढती हूं रोज तुझको
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारों में
नहीं पता था तू बसा है
गरीब की पुकारों में
हो रही हूं रोज परिचित
जबसे तुझमें लगा मेरा चित
हे प्रभो.........

अभिलाषा चौहान






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