वो आंखें

वो आंखें सूनी सपाट  खुली हुई
दुनिया का अथाह दर्द समेटे
कुछ भोगा हुआ
कुछ अपनों का दिया
भावना विहीन पथराई सी
देख जिन्हें रूह कांप उठी
समझ कर भी नहीं समझ पाए
उन आंखों का दर्द
जो कहना चाहती थीं
अपना दमघोंटू दर्द
बोल नहीं सकती थीं
भीगे थे किनोर
दिल का दर्द आंसूओं का रूप ले
झर रहा था
कतरा कतरा मानो दिल का
बह रहा था
पथराए से खडे हम
असहाय देख रहे थे
दर्द के समंदर को
सैलाब उमड़ आने को था
कोई जान से जाने को था
उस सैलाब में बह रहे थे हम
स्तब्ध जडवत असहाय से
चाह कर भी नहीं समझ पाए
वह अनकहा दर्द
जो उन आंखों में था
पथराई सी वे आंखें
आज भी शूल बन
चुभोती हैं नश्तर
बह उठता है तब हमारी आंखों से
आंसुओं का झर झर निर्झर

अभिलाषा चौहान


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