मन के बैरी

मन के बैरी पांच भए
मन को अपने वश में किए
काम क्रोध मद लोभ मोह
मन में पनपे उपेक्षा द्रोह
अति कामी व्यभिचार में डूबा
चरित्रहीन उस सम न दूजा
क्रोध समान न बैरी कोय
क्रोध में सबकुछ गडबड होय
बुद्धि विवेक नष्ट हो जाय
बडे़ बड़े काम बिगडाय
मद में मदमस्त होय जवानी
आंखों में न शर्म का पानी
मद जब सिर चढकर डोले
बडे़ बड़े सिंहासन डोले
लोभ मनुज का ऐसा बैरी
दीन ईमान की चिता जलाए
लोभ में डूबा लोभी देखो
कैसे कैसे गुल खिलाए
मोहपाश में बंधे जो व्यक्ति
उसको कभी फिर मिले न मुक्ति
मोह के दलदल डूबत जाय
भवसागर से फिर तिर न पाए
अलग से ये बैरी नहीं दिखाए
पर जब ये हावी हो जाए
मनुज की सीरत पल में बदले
पतन की राह पर वह है फिसले
पाप पुण्य हो जाय बेमानी
फितरत बदल जाय इंसानी

अभिलाषा चौहान
चित्र गूगल से साभार 



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