कन्यादान

वह कली जो मेरे आंगन खिली
नाजों से पली बाबुल की लाडली
महकता था आंगन जिसके हंसने से
खुशियां थी खिलखिलाती जिसके होने से
बन आंखों का तारा चमकती थी वो
दिल में हमारे धडकती थी वो
रौनके हमारे घर की उससे ही थी
वक्त हाथों से फिसला, फिसलता गया
परंपरा निभाने का समय आ गया
छोड बाबुल का घर अब उसे जाना था
मां-पिता को कहां अब चैन आना था
कैसे सौंपे किसी को हृदय की कनी
सोचने से कभी बात कहां है बनी
बेटी की विदाई की रीत कैसे बनी
क्यों पराई हुई मां-पिता की जनी
दान करना है उचित मैंने माना भला
कन्यादान उचित कैसे मानूं भला
दान दे दी जब अपनी प्रिय लाडली
सूना हुआ घर आंगन दिल की गली
अपनी बेटी पर अपना हक न रहा
सोचकर ये दिल तड़पता रहा
बेटियां सदा रस की खान है
इन पर निछावर दिलो जान है
बेटियों को दिल से लगाकर रखो
बेटियों को कभी कोई दुख न हो

अभिलाषा चौहान


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