पहले घर कच्चे थे.....

पहले घर कच्चे थे,
मन सच्चे थे,
सुन लेते थे मन की आवाज,
खुले रहते थे सदा
खिडकियां 'औ' दरवाजे
नहीं था कोई ताला
न कोई चुराने वाला
क्योंकि सब मन के धनी थे ,
मन से धनी थे......
अब तो घर पक्के हैं
मन भी पक्के हैं
बंद हैं उनकी खिडकियां 'औ' दरवाजे
नहीं सुनाई देती है कोई आवाज़
बढ़ गए हैं फासले.....
लग हैं ताले
घरों पर दिलों पर ,
लगी रहती है चिंता
कहीं कोई न चुराले ..
तिजोरियों में रखा धन,
नहीं कोई कीमत अब
जीवन-धन की
रिश्तो की
बेबसी'औ' खामोशी की
अब पक्के हैं घर
अब पक्के हैं मन
अब सब धन से धनी हैं,
कोई न मन से धनी है,
नही पहुंचती वहां कोई आवाज.....
अपनों की,
अब घरों में भी बन गए हैं घर
अब मनों में भी बन गए हैं घर
लग गए है ताले
नहीं पहुंचती कोई आवाज
बेबसी की
पीड़ा की
दुख की
अकेलेपन की
इंसानियत की..... 🙄🤔😞

---------—--*अभिलाषा*----—---
पहले घर कच्चे थे
 पर मन सच्चे थे

टिप्पणियाँ

  1. सादर आभार लोकेश जी आप लोगों की प्रतिक्रियाएं
    सदैव उत्साहवर्धन करती है कृपया इसी तरह प्रेरित करते रहें।

    जवाब देंहटाएं
  2. सत्य का दर्पण दिखाती सुन्दर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर आभार नीतू जी बहुत अच्छा लगा आपकी प्रतिक्रिया पाकर

    जवाब देंहटाएं

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