जीवन दर्शन "भारतीय संस्कृति और परिवार"

भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। समय के साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया और एकल परिवारों का जन्म हुआ। इस परिवर्तन के साथ ही जीवन शैली में भी बदलाव आया और मूल्यों का पतन प्रारंभ हुआ। जहां कई पीढियां एक साथ मिलकर रहती थीं, वहां माता-पिता का साथ रहना भी मुश्किल माना जाने लगा। मेरा-तेरा,अपना-पराया, धन-संपत्ति की लिप्सा, बंधनों से मुक्ति, स्वार्थ और भौतिक
चकाचौंध ने व्यक्ति की सोच को संकीर्ण बना दिया। परिणाम स्वरूप रिश्ते मरने लगे , प्रेम की जगह स्वार्थ ने ले ली। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति इतनी हावी होने लगी कि स्वसुख की लालसा में पति-पत्नी का संबंध भी भेंट चढ़ने लगा , जिसका सबसे बड़ा खामियाजा उनकी संतानों को भुगतना पड़ा है जो संतानें पहले परिवार के बीच में प्रेम , त्याग, समर्पण, व सदाचार का
पाठ पढती थीं, वे स्वार्थ , एकाधिकार , वर्चस्व का पाठ पढने लगी ।यही कारण है कि समाज में नैतिक मूल्यों का पतन दिनोंदिन बढ़ रहा है। सर्वत्र उच्छृंखलता दिखाई दे रही है। आज भी ऐसे परिवार है समाज में, जो मिसाल बनें हुएहैं
जहां अपनापन है वहाँ अलग रहकर भी व्यक्ति अलग नहीं होता और जहां अपनापन नहीं होता वहां व्यक्ति पास होकर ही दूर ही रहता है। अतः परिवार के महत्त्व को समझे और बच्चों की परवरिश को महत्वपूर्ण माने क्यो कि यह तो सत्य ही है कि--"हम जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे।  "कहीं ऐसा न हो कि आपके जीवन पर भी यह उक्ति साकार हो जाए कि"-बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से खाए।  "

🙏🙏🙏🙏🙏अभिलाषा🙏🙏🙏🙏🙏

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