कविताएँ - - बंद दरवाजे - -





आज समाज की सोच संकीर्ण हो गई है। सब
जगह भेदभाव दिखाई देता है। मनभेद और मतभेद बढ़ गए है,  जो अब घरों और दिलों तक जा पहुंचे हैं, मेरी यह कविता इसी के संदर्भ में एक छोटा सा प्रयास है  ।

बंद हो गए खुले दरवाजे ...... 
जाति के
धर्म के
प्यार के
समर्पण के
सहिष्णुता के
त्याग के
मैंने कोशिश की ,
खोलने की इन दरवाजों को..
पर शायद
मुझमें ताकत नहीं थी ..
या फिर मेरी
कोशिशों में कमी थी...
या फिर दरवाजे
बहुत कसकर बंद हुए थे।
शायद कभी खुल जाए..
बंद दरवाजे
नई हवा आने लगे ,
मिट जाए सारी दुर्गंध
उड़ जाए सारी धूल,
नफरत की
वैमनस्य की
स्वार्थ की
संकीर्णता की
बस यही है अभिलाषा....
कि खुल जाए..
बस एक बार
फिर से.....
यह दरवाजा
जो हमने बंद किया है।।।। 🙏🙏🙏

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