कैसे तेरे खेल विधाता

 तेरी लीला तू ही जाने,
हम चाहे माने न माने।
तूने ये संसार बनाया,
हमने इस पर हक जमाया।
भूल गए सब बातें असली,
कि हम तो हैं बस कठपुतली।
जैसे चाहे तू हमें नचाए,
फिर भी आंखें खुल न पाए।
सोचते कुछ और होता कुछ है,
भाग्य लिखे पर किसका बस है।
हाथ मलें और हम पछताएं,
विधि का लिखा समझ न पाएं।
कैसे तेरे खेल विधाता,
इंसान कहां कुछ समझ है पाता।
कहीं झोली में दुख ही दुख है,
कहीं समय का बदला रुख है।
कहीं तू छप्पर फाड़ के देता,
कहीं कंगाली में आटा गीला होता।
बन के तेरे हाथों की कठपुतली,
मानव फिर भी भूला रहता।
कैसे तेरे खेल विधाता,
भूल भाग्य पर मानव इतराता।
नजर जो तूने अपनी फेरी,
बर्बादी में फिर नहीं है देरी।
तेरी लीला तू ही जाने,
मुझको कुछ भी समझ न आया।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

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