जड़ जीवन

ठहर जाता है जहां जीवन,
थम जाती है सारी उम्मीदें।
लुटती नजर आती खुशियां,
टूटती उम्मीदें बिखरते सपने।
अपनों को खोकर रोते अपने,
अस्पतालों का ये जड़ जीवन।
संवेदनाओं का यहां अकाल पड़ा,
हरकोई यहां पेशेंट बनके पड़ा।
टूटती सांसों से जुड़े जो जीवन,
पत्थरों पर कहां कोई असर पड़ा।
लगने लगे हैं यहां भी अब मेले,
भीड़ के बीच हैं सब अकेले।
गुजर जाता जब कोई अपना,
पत्थरों से कोई झरना बहे न,
जड़वत जिंदगी अस्पतालों की।
संवेदनाओं ने हिम्मत हारी,
एक अस्तित्व पेशेंट बन के पड़ा।
गया जहां से पेशेंट बन के गया,
निराशा और विपत्ति की सौगात मिली,
किसी की मौत से यहां व्यवस्था न हिली।
जड़ता से घिरा होता यहां का जीवन,
भाग्यशाली को मिलता यहां संजीवन।
यहां हर रोज जंग लड़ी जाती है,
जिंदगी फिर भी हार जाती है।
मरती संवेदनाओं में कौन किसी का यहां,
हर कोई है बस अकेला यहां।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

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