दिवास्वप्न बनती छाया
घर के बुजुर्ग,
जैसे हों वृक्ष घने।
जिनकी छाया में,
पनपते संस्कार,
परिवार,रिश्ते ,
स्नेह-कमल,
प्रेम-पुष्प,
आज जैसे बन गए,
हों स्वप्न !!
वृक्षों की तरह ही ,
उजड़ गए उनके जीवन !
अब सिमट गए हैं,
घर के बुजुर्ग..,
घर के किसी कमरे में;
या वृद्धाश्रमों में;
जिनकी छत्र-छाया...
में पलती थी बेफिक्री;
हंसते-खिलखिलाते थे रिश्ते!!
अब वही छत्र छाया,
लगती है बंधन ?
विलुप्त होते संस्कार,
न वृक्षों से प्रेम,
न छाया की चिंता,
बंद एसी कमरों में,
या गाड़ियों में!
पीछे छूटते संस्कार;
धूमिल होती संस्कृति;
बनती जा रही इतिहास!
आज की भौतिक संस्कृति में;
स्वछंदता है सर्वोपरि!
छाया को भी ढूंढना पड़ता ,
आश्रय छाया का!!
जो हो रही लुप्त,
अब है दिवा-स्वप्न,
वह शीतल ठंडी छाया।
जिसे छीनता जा रहा है,
स्वयं मानव अपने ही सिर से।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
जैसे हों वृक्ष घने।
जिनकी छाया में,
पनपते संस्कार,
परिवार,रिश्ते ,
स्नेह-कमल,
प्रेम-पुष्प,
आज जैसे बन गए,
हों स्वप्न !!
वृक्षों की तरह ही ,
उजड़ गए उनके जीवन !
अब सिमट गए हैं,
घर के बुजुर्ग..,
घर के किसी कमरे में;
या वृद्धाश्रमों में;
जिनकी छत्र-छाया...
में पलती थी बेफिक्री;
हंसते-खिलखिलाते थे रिश्ते!!
अब वही छत्र छाया,
लगती है बंधन ?
विलुप्त होते संस्कार,
न वृक्षों से प्रेम,
न छाया की चिंता,
बंद एसी कमरों में,
या गाड़ियों में!
पीछे छूटते संस्कार;
धूमिल होती संस्कृति;
बनती जा रही इतिहास!
आज की भौतिक संस्कृति में;
स्वछंदता है सर्वोपरि!
छाया को भी ढूंढना पड़ता ,
आश्रय छाया का!!
जो हो रही लुप्त,
अब है दिवा-स्वप्न,
वह शीतल ठंडी छाया।
जिसे छीनता जा रहा है,
स्वयं मानव अपने ही सिर से।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
वह शीतल ठंडी छाया।
जवाब देंहटाएंजिसे छीनता जा रहा है,
स्वयं मानव अपने ही सिर से।
बिलकुल सही ,बेहतरीन रचना सखी
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन...
हटाएंवाह!!!
वाह१!सखी ,लाजवाब रचना!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंसहृदय आभार यशोदा जी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना सखी
जवाब देंहटाएंसादर
बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबड़ों का सदा
जवाब देंहटाएंसर पर रहे हाथ.
नमस्ते.