और कितना होगा बंटवारा ??

बंटवारा हुआ सरहदों का,
दोस्त दुश्मन बनते गए।
मजहबों के नाम पर ,
हम कई हिस्सों में बंटते गए।

जातियों के नाम पर,
खींचते गए दीवार!
प्यार को हम भूल गए,
नफरतों के बीज बोते चले गए।

सूखते गए संवेदना स्त्रोत ,
हम पत्थर बनते चले गए।
बंटवारे से जब जी न भरा
हम उसे महत्व देते चले गए।

पहले बंटे मोहल्ले ,
फिर बंटे खेत-खलिहान।
बात आ पहुंची फिर घरों तक
हम लकीर खींचते चले गए।

बंट गए घर के दरों-दीवार,
दिलों में लकीरें खींचते चले गए।
बंटे सारे रिश्ते, बढ़ी दुश्मनी,
मां-बाप को भी हम बांटते चले गए।

बढ़ने लगा फर्क, स्वार्थ भी बढ़ा,
हम स्वार्थ में अंधे होते चले गए
अमीर-गरीब के बीच का फर्क भी बढ़ा ,
गरीब को अमीर ठोकरें मारते चले गए।

बंटवारा दिमाग पर ऐसा कुछ चढ़ा,
कि खुद के अस्तित्व को मिटाते चले गए।

टिप्पणियाँ

  1. बंट गए घर के दरों-दीवार,
    दिलों में लकीरें खींचते चले गए।
    बंटे सारे रिश्ते, बढ़ी दुश्मनी,
    मां-बाप को भी हम बांटते चले गए।
    बेहद मार्मिक रचना सखी ,सादर स्नेह

    जवाब देंहटाएं
  2. बंटवारा दिमाग पर ऐसा कुछ चढ़ा,
    कि खुद के अस्तित्व को मिटाते चले गए।
    बहुत सुंदर,अभिलाषा दी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बंटवारा दिमाग पर ऐसा कुछ चढ़ा,
    कि खुद के अस्तित्व को मिटाते चले गए।....बेहतरीन सृजन सखी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01 -06-2019) को "तम्बाकू दो छोड़" (चर्चा अंक- 3353) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है

    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं

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