और गाँव की याद आई...


एक रोग सारी दुनिया की
दिखलाता है सच्चाई।
जिन शहरों को अपना माना
उनमें ही ठोकर खाई।

ऐसे उसने पैर पसारे
काम-धाम सब बंद हुए
लोगों ने तेवर दिखलाए
रिश्ते सारे मंद हुए।
और गांव के कच्चे घर की
हूक हृदय में लहराई।
जिन शहरों को अपना माना
उनमें ही ठोकर खाई।

प्रेम फला-फूला करता था
गाँव गली-घर-आँगन में
चिंता मुक्त रहा था जीवन
मात-पिता की छाँवन में
विपदा की इस कठिन घड़ी में
याद गाँव की बस आई
जिन शहरों को अपना माना
उनमें ही ठोकर खाई।

प्रीत बुलाती खेतों की अब
नहर हाट बगियाँ गलियाँ
खपरैलों की छत के नीचे
रोटी-प्याज छाछ-दलिया
नंगे पैरों दौड़ पड़े सब
हृदय पीर जब अधिकाई।
जिन शहरों को अपना माना
उनमें ही ठोकर खाई।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. समसामयिक खूबसूरत रचना सखी 👌👌👌

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