विडंबना

पाषाणों से बन बैठे हैं
जीवन के रखवाले
भटक रहा जीवन सड़कों पर
पग में पड़ते छाले।

छिनी हाथ से रोजी-रोटी
पास नहीं है कौड़ी
खत्म हुई वो पूँजी भी
जो श्रम से थी जोड़ी
भूख डसे नागिन सी बनकर
जीने के हैं लाले
भटक रहा जीवन सड़कों पर
पग में पड़ते छाले

शहरों ने सुख छीन लिया है
गाँव याद है आया
कच्चे घर की महक सलोनी
उसने पास बुलाया
मीलों की यह दूरी अखरे
जाते जाने वाले
भटक रहा जीवन सड़कों पर
पग में पड़ते छाले।

पास नहीं है दाना-पानी
आँखों में वीरानी
बच्चे व्याकुल बेसुध होते
पीड़ा किसने जानी
कैसी विपदा खड़ी सामने
छिने सारे उजाले
भटक रहा जीवन सड़कों पर
पग में पड़ते छाले।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही दर्दनीय हालात है ,प्रवासी मजदूरों के और मज़बूरी भी ,अभिलाषा जी बहुत ही भावत्मक सटीक प्रस्तुति

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  2. प्रिय अभिलाषा जी, जड़ से उखड़े प्रवासी मजदूर जिस तरह सड़कों के रास्ते भटकते घर गाव की तरफ दौड़ रहे हैं वह सदी की सबसे भयावह और मार्मिक तस्वीर है। उस पीड़ा को कोई धन कुबेर कहाँ जान सकता है?? बहुत अच्छा लिखा आपने इस दर्द को समझकर। सुप्रभात और शुभकामनायें 🙏🙏💐💐🌹🌹

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी 🌹🌹 सादर ,सटीक प्रतिक्रिया हेतु आभार सखी 🌹🌹

      हटाएं
  3. सील को छूती मार्मिक रचना।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन सखी ।

    जवाब देंहटाएं
  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१६-०५-२०२०) को 'विडंबना' (चर्चा अंक-३७०३) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  6. अभिलाषा जी,

    आपने, सच मे हृदय को भेद देने वाली पंक्तियों लिखी है। यह इस समय की विडंबना ही तो है एक कोरोना का दंश और ऊपर से घर वापसी वो भी इस तरह।

    👍👍👍💐💐💐

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सटीक प्रतिक्रिया हेतु आभार

      हटाएं
  7. बहुत ही हृदयस्पर्शी नवगीत
    समसामयिक एवं यथार्थ पर आधारित...।

    जवाब देंहटाएं
  8. प्रकृति ने जब कभी ऐसी" विडंबना " रची हैं तो उसमे पिसते ये गरीब और मजबूर लोग ही ही। इतिहास ने कभी आजादी के लिए खुद को मिटाने वाले लोगो की दास्ता लिखी होगी, मगर जीने के लिए ,जीवन को ही यूँ तिल तिल कर मिटाते मानव की जदोजहद ,एक ऐसा भयानक दास्तां रच रही हैं कि इस इतिहास को पढ़कर आने वाली पीढ़ी भी काँप जाएगी। आपका गीत यही मार्मिक दास्तां सुना रहा हैं ,सादर नमन सखी

    जवाब देंहटाएं
  9. पास नहीं है दाना-पानी
    आँखों में वीरानी
    बच्चे व्याकुल बेसुध होते
    पीड़ा किसने जानी
    कैसी विपदा खड़ी सामने
    छिने सारे उजाले
    भटक रहा जीवन सड़कों पर
    पग में पड़ते छाले।

    आज के परिदृश्य की सार्थक विवेचना करता हुआ आपकी ये कविता । बहुत ही सुन्दर शब्दों में समग्र छायांकन आपने किया है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 ब्लाग पर आने के लिए पुनः आभार 🙏🙏

      हटाएं

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