कोरोना की पीर शूल-सी

पथराए से नयन देखते
धूमिल सब संसार हुआ
मानव हार रहा है बाजी
काल खेलता रहा जुआ।

टूटे दर्पण से बिखरे सब
सपनों के टुकड़े-टुकड़े
अजगर बैठा मार कुंडली
जीवन को जकड़े-जकड़े
भयाक्रांत सा मानस भूला
उसने कब आनंद छुआ
मानव हार रहा है बाजी
काल खेलता रहा जुआ।

एक अकेलापन काफी है
गिरती तन-मन पे बिजली
अँधियारा घिर कर आया है
भोर नहीं दिखती उजली।
गरल मिला है जीवन भर का
अमृत तो अब स्वप्न हुआ।
मानव हार रहा है बाजी
काल खेलता रहा जुआ।

ममता रोती करुणा सोती
चाबुक से पड़ते तन पे
अपनों के अवशेष देखकर
वज्रपात होता मन पे
कोरोना की पीर शूल सी
क्रंदनमय श्रृंगार हुआ।
मानव हार रहा है बाजी
काल खेलता रहा जुआ।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (06-07-2020) को 'मंज़िल न मिले तो न सही (चर्चा अंक 3761) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

    जवाब देंहटाएं
  2. यथार्थ सृजन.अभिलाषा जी।
    स दर।

    जवाब देंहटाएं
  3. यथार्थ दर्शाता मार्मिक सृजन आदरणीय दी .

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे इस वेबसाइट पर कुछ नया मिला, मेरी कुछ राय इससे सहमत हैं, मैं बस एक संक्षिप्त राय या लेख या कुछ ऊपर दिए गए सुझावों के लिए पूछना चाहता हूं और मुझे यकीन है कि आप संक्षिप्त निष्कर्ष और निष्कर्ष बनाने में अधिक कुशल हैं उस के लिए .. मुझे यहाँ अच्छा पोस्ट मिला। मैं इसकी बातें करता हूँ। उत्तम!

    जवाब देंहटाएं

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