विकास फिर रूठ जाता है...

ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतों
के पास ही बनी झुग्गियां
देती विपन्नता का परिचय
जीवन को जैसे तैसे जीते
फटेहाल विपन्न लोग
यह विषमता की खाई
बढ़ रही सुरसा के मुख की तरह
दिनरात बहाते जो पसीना
वो और भी ज्यादा हो जाते गरीब
न बच्चों की अच्छी शिक्षा
न उनको अच्छा पोषण
शोषण बस शोषण
वस्त्र पर लगे पैबंद के सम
ये झुग्गियां
हर ओर दिखाई देती है
एक पल में खाक होता
विकास का स्वप्न
स्वच्छता व डिजिटल इंडिया
ठेंगा दिखाते
गंदगी और कचरे के बीच
असुविधाओं में पनपता जीवन
अनेक कुंठाओं से ग्रस्त
देता अनचाहे अपराधों को जन्म
इस महानगरीय जीवन में
बलवती दिखावे की प्रवृति
दोहरे जीवन का बन प्रतिबिंब
असमानता और आर्थिक विषमता
की खाई को और बढ़ा देता
ये झुग्गियां मारती तमाचा
विकास के मुख पर
धो देती एक पल में
सारे ख्बाव
मुंह चिढ़ाती उन
गगनचुंबी इमारतों को
सुंदर मुख पर ज्यों निकला हो
कोई मुहासां
जितनी तेजी से बढ़ रही
इन झुग्गियों की संख्या
उतनी स्पीड बुलेट ट्रेन
की भी नहीं होगी
उतनी ही तेजी से बढ़ रहे
अपराध, टूटे स्वप्न
अधूरी आकांक्षाएं
लालसा अधूरी प्यास
देती एक अलग ही संस्कृति
को जन्म
एक अधूरा भारत अपने
अस्तित्व की लडता जंग
जहां रोशनी बमुश्किल
ही पहुंचती है
वहां विकास भी बेड़ियों
में जकडा है
सारी बातें हो जाती हवा
झुग्गियों की संस्कृति में
बडी बडी बातें सिर्फ़
पहुंचती गगनचुंबी इमारतों में
धरातल कहीं पीछे छूट जाता है
विकास फिर रूठ जाता है!!
********अभिलाषा चौहान ***********

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