धरा की व्याकुलता


धरती मां है
सह रही है सब कुछ
निशब्द
नहीं चाहती वह
देना संतानों को पीड़ा
देती ही आई है सदा
जीवन...
जीने के साधन
हरे - भरे वृक्ष
लहलहाते खेत
निर्मल नदियाँ
हिमगिरी
जलधि
पर कब तक...?
थक चुकी है वह
तुम्हारी उपेक्षा से
तुम्हारे व्यवहार से
नष्ट कर उसकी सुंदरता
खड़े किए कंक्रीट के जंगल
नष्ट कर दिए हरे भरे वन
जिनमें बसता था जीवन
दूषित कर दी नदियाँ
हिमगिरि
जलधि
सबकुछ
गर्भ से उसके खींच लिया
अमृत जल
भभकने लगी है धरती
सुलगने लगी क्रोध की आग
बदल गया मौसम चक्र
दरकने लगे पहाड़
सूख गईं नदियाँ
मिटा कर प्रकृति को
खुद को कहां से पाओगे?
मां भी देती है दंड
सुधर जाओ
इसे बचाओ
वृक्ष लगाओ
वन बचाओ
जल बचाओ
अपना कल बचाओ(अभिलाषा चौहान) 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 08 जुलाई 2018 को साझा की गई है.........


    http://halchalwith5links.blogspot.in/
    पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद आदरणीय जो आपने मेरी रचना को चुना
      उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार

      हटाएं
  2. बहुत सुंदर चेतावनी मानव मात्र को धरा की वेदना उकेर दी आपने और उस का प्रतिफल भुगतना होगा ।
    सार्थक यथार्थ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार कुसुम जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए

      हटाएं
  3. प्रकृति को सहेजने का संदेश देती बेहद प्रेरक रचना।
    प्रकृति धरा की आत्मा है मानव समय रहते यह समझ जाए उसी में उसकी भलाई है अन्यथा विनाश अवश्यंभावी है।

    जवाब देंहटाएं
  4. सादर आभार आपका श्वेता जी अच्छी प्रतिक्रिया के
    लिए

    जवाब देंहटाएं

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