पुरुष हूं परुष नहीं....

मेरी यह रचना उन पुरुषों को समर्पित है जो अपने परिवार और अपने दायित्व के प्रति पूर्ण रुप से समर्पित हैं । वो भी भावनाओं से परिपूर्ण होते हैं पर अभिव्यक्त नहीं कर पाते ।
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पुरुष हूं परुष नहीं , हृदय मैं भी रखता हूँ
हैं मुझमें भी संवेदना
कह ना सकूं कभी मैं, अपने मन की वेदना
भावनाओं की नहीं कमी, पर न कह पाऊं ना
मैं कोई कवि नहीं, जो गीत गाऊं नित नया
बंटा हूं मैं भी रिश्तों में, जीता हूं मैं भी किश्तों में
पुत्र, पति,पिता बना, दायित्वों का भार घना,
बंटता गया मैं हिस्सों में, कटता गया रिश्तों में
यंत्र जैसी जिंदगी,  अनवरत चलती रही
जद्दोजहद जिंदगी की, और भी बढती रही
भूलता सा मैं गया, जूझता ही रह गया
कह न पाया कभी,अपने मन की भावना
दर्द मुझे होता है, दिल भी मेरा रोता है
पर हर दर्द के लिए, शब्द कहां होता है
चुप जो मैं रहता हूं, कुछ जो न कहता हूं
आंक ली गई इससे मेरी कठोरता
पुरुष हूं परुष नहीं, दिल तो मैं भी रखता हूं
करता  मैं भी रात-दिन
सबके भले की कामना
हूं बडा़ ही एकाकी
तुम मुझे सम्हालना । पुरुष हूं...  .....!
फोटो गूगल से संकलित

  • (अभिलाषा चौहान ) 

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