महक रहा है कस्तूरी सा

कोरे कागज सी ये काया इसका करले अभिनंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन काया कपट कुंडली उलझी काम क्रोध नित तड़पाए मद में अंधा होकर घूमे मन माया में भरमाए। हिय घट में नवनीत छुपा है उसका करले अब मंथन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। जीवन का उद्देश्य भुलाकर भटका जग के कानन में व्यसन अहेरी जाल बिछाता लोभ लुभाता आनन में जीव बना पिंजरे का पंछी करता रहता नित क्रंदन महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन।। हीरे सा अनमोल जन्म ये अहंकार में सब भूला कालकूट का बनके आदी फिरता है फूला-फूला लोभकपट अब व्यसन रोग से, मुक्ति युक्ति का कर चिंतन। महक रहा है कस्तूरी सा अंश प्रभो का कर वंदन। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक