नेह कली मुरझाती है।

विरह वेदना बदली बनकर हृदय गगन में छाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है।। सूने से इन नयनों से जब पीड़ा छलके गगरी सी बुनती हूँ सपनों के जाले उलझी-उलझी मकड़ी सी रंग नहीं कोई जीवन में रजनी घिर कर आती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह-------------------।। धूप समान सुलगता ये तन भाव सुलगते अंगारे वनवासी सा प्रेम हुआ है गए साथ हैं सुख सारे स्मृतियों के कानन में जैसे हिरनी राह न पाती है। प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह------------------।। मंथन मन का करते-करते गरल हाथ में आया है पीकर प्यास बुझेगी कैसे हृदय बहुत घबराया है झोली भरकर कंटक पाए नेह कली मुरझाती है प्रीत दामिनी सी मन में तब कड़क-कड़क गिर जाती है। विरह--------------------।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक