आह!वेदना मुझमें सोती….!

आह!वेदना मुझमें सोती, जग की पीड़ा देख के रोती। चुभती है अपनों की घातें, ये दुख की जो काली रातें। विरह-व्यथा की कटु कहानी, कैसै कहूं मैं अनजानी। बन के कविता हुई प्रस्फुटित, हृदय भाव जिसमें उर्जस्वित। आह!वेदना करती व्याकुल, हृदय मची रहती है हलचल। याद आती है बीती बातें, जग की भीड़, अकेली रातें। घुट-घुट के हर पल को जीना, अपने आंसू आप ही पीना। ओढ़ मुखौटा मुस्कानों का, अपने-आप से लड़ते रहना। आह!वेदना कोई न समझे, जीवन का हर पल है उलझे। मेरा रोना,हंसना जग का, मैं मोहरा सबकी बातों का। प्यार जता कर शूल चुभाना, जग का है ये खेल पुराना। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक