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चिंगारी कब है दहकी

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टूटे टूटे सपने मन के आस चिरैया कब चहकी भूख जलाती सदा रुलाती चाल जीव की फिर बहकी। बात बड़ी सब लगती झूठी बर्तन खाली बजते जब हाड़ तोड़ते कंकालों के प्राण पीर से सजते तब हाथ जोड़ते शीश पटकते पत्थर सुनते कब सिसकी।। सूर्य उगा कब उनके आँगन चाँद चला चकमा देकर मेघ हथौड़े बरसाते हैं पवन चली चाबुक लेकर ऋतुएं बदली बीती घडियाँ फुलवारी भी कब महकी।। फटी गूदड़ी तन पर छाले बंधुआ नियति के बनते काल बना बैठा है धुनिया सदा रहा उनको धुनते जीवित लाशों के अंदर पर चिंगारी कब है दहकी।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सुन्दर सपना सलोना सा

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नैनों के दर्पण में झूले सुंदर सपन सलोना सा सुख के अंकुर लगे फूटने दुख भी लगता बौना सा।। भावों की उर्वरता बढ़ती देती मन को आस नयी रोप रहा है खुशहाली को बीत गई सो बात गयी हिय आँगन में उछल रहा है हर्ष किसी मृगछौना सा।। स्वेद-लहू से सींच रहा है जीवन की फुलवारी को शीश खड़े संकट कितने सदा बचाता बाड़ी को माटी की ममता में पलता नभ भी लगे बिछौना सा।। बीज रोपता संस्कारों के दिया प्रेम का पानी वो भावी को मुट्ठी में जकड़े श्रम की लिखे कहानी जो और धरा के आँचल में फिर बिखर रहा है सोना सा।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

गूँजते ये गीत कैसे

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चंचला चमकी चपल जब कौंध कर हिय में समाई। मेघ यादों के झरे तब नींद नयनों ने गँवाई। दृश्य जीवंत से हुए हैं पल चुभे फिर शूल जैसे पीर आँधी सी उठी है उड़ रही ये धूल कैसे चित्र धुँधले साफ होते धुंध जब सारी हटाई। साथ बीते पल सलोने आ गए अतिथि के जैसे प्राण में मधुमास छाया गूँजते ये गीत कैसे देख अपना बचपना फिर कोंपलें फिर लहलहाई। काल ने भी शस्त्र डाले याद से वह हार जाए जीतता वो पल सदा है आए और बीत जाए है धरोहर ये मनुज की मृत्यु भी कब छीन पाई।। अभिलाषा चौहान

कुछ मन की

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कल विश्व गुर्दा दिवस है।इसका उद्देश्य है लोगों में गुर्दे और गुर्दे से संबंधित बीमारियों को लेकर जागरूकता पैदा करना। ईश्वर न करे कभी किसी को गुर्दे से संबंधित बीमारियों का सामना करना पड़े और यदि ऐसा हो जाए तो अपनों के जीवन को बचाने के लिए हमें गुर्दा प्रत्यारोपण से पीछे नहीं हटना चाहिए।आज के इस युग में यह तकनीक लोगों जीवन दान दे रही है,कृपया भय त्यागकर जीवन रक्षा के इस पुनीत कार्य को आगे बढ़ाएं और लोगों को जागरूक करें।मुझे जब पता चला कि मेरे पति की जीवन रक्षा अब गुर्दा प्रत्यारोपण से ही सकती है तो मैंने गुर्दा दान करना ही श्रेयस्कर समझा।यह ईश्वर की अनुकम्पा ही है कि शायद उसने मुझे इसीलिए बनाया था।सच मानिए एक माह होने को आ रहा है और मुझे कोई परेशानी नहीं है। यह सब यहाँ लिखने का मात्र एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक लोगों तक यह बात पहुँचे ताकि लोग जागरूक हो, नीम-हकीम के फेर में पड़कर जीवन से खिलवाड़ न करें और अपनों को और गैरों को जीवन दान देने के लिए आगे आएँ।

सबसे होंगे जो न्यारे

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भरूँ कुलाँचे हिरनी जैसी तोड़ चलूँ बँधन सारे अपना ही प्रतिमान बनूँ अब तोड़ गगन के सब तारे।। कोमल हूँ कमजोर नहीं जो लिख न सकूँ इतिहास नया पंख मिलें हैं उड़ने को जब नहीं चाहिए कभी दया ऊँचे पर्वत गहरी खाई संकल्पों से सब हारे। रात अँधेरी गहरी काली रोक सके कब राहों को चमक रही जुगनू सी आशा फूल खिलें हैं चाहों के लीक पीटते रहें यहाँ सब समता के देते नारे।। नदी बँध को तोड़ बहे ज्यूँ पवन रुके न रोके से कदमों को कब रोक सकेगा कोई अब यूँ धोखे से लक्ष्य चुनूँ नव राह गढूँ अब सबसे जो होंगे न्यारे।। अभिलाषा चौहान

पीड़ित होते हैं प्राण

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युगों-युगों से सहते-सहते, बनती नारी पाषाण। पीते-पीते पीड़ा का घट, पीड़ित होते हैं प्राण। लेकर भार सृजन का जन्मी कहते धुरी जीवन की पुरूषों के पहरे पग-पग पे बात सुनी नहीं मन की होते गए चीथड़े मन के लगते हिय पे जब बाण।। पुरूष बना सर्वस्व हमारा तो रंग जीवन आए साथ छूटता है जब उसका, सब बेरंग हो जाए सागर सा विचलित अंतर्मन, समझे जग बस चट्टान। साध-साध मन बनती साध्वी किसी ने कब ये जाना मार-मार कर इच्छाओं को हँसना और मुस्काना लक्ष्मण रेखाएँ साथ चली पर हुआ कभी कब प्राण। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

चाँदनी भी है सिसकती

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भावनाएँ मर चुकी हैं वेदना मन में हुलसती चाँद भी मद्धिम पड़ा है चाँदनी भी है सिसकती।। ये धरा उजड़ी हुई सी ठूँठ पर छाई उदासी मेघ रोते रात-दिन पर देखती बस नदी प्यासी फट रहा गिरि का हृदय भी नैन से पीड़ा बरसती।। बन रहा पाषाण सा क्यों क्यों रहे करुणा उपेक्षित ढो रहा है भार तन का क्या हृदय को चिर प्रतीक्षित मर चुके मन को सम्हाले क्या लहर उसमें लहरती।। प्राण का विचलित पतंगा ढूँढता लौ को भटकता हारता थकता नहीं पर शीश अपना है पटकता दीप का था गुल धुआँ भी टीस सी अंतस कसकती।। अभिलाषा चौहान