चाँदनी भी है सिसकती






भावनाएँ मर चुकी हैं

वेदना मन में हुलसती

चाँद भी मद्धिम पड़ा है

चाँदनी भी है सिसकती।।


ये धरा उजड़ी हुई सी

ठूँठ पर छाई उदासी

मेघ रोते रात-दिन पर

देखती बस नदी प्यासी

फट रहा गिरि का हृदय भी

नैन से पीड़ा बरसती।।


बन रहा पाषाण सा क्यों

क्यों रहे करुणा उपेक्षित

ढो रहा है भार तन का

क्या हृदय को चिर प्रतीक्षित

मर चुके मन को सम्हाले

क्या लहर उसमें लहरती।।


प्राण का विचलित पतंगा

ढूँढता लौ को भटकता

हारता थकता नहीं पर

शीश अपना है पटकता

दीप का था गुल धुआँ भी

टीस सी अंतस कसकती।।



अभिलाषा चौहान

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर अभिलाषा जी ! श्री जयशंकर प्रसाद होते तो आप से पूछते -
    इस करुणा-कलित ह्रदय में
    क्यों विकल रागिनी बजती
    क्यों हाहाकार ह्रदय में
    वेदना असीम गरजती

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. Gopesh Mohan Jaswal आदरणीय मुझ जैसे तुच्छ प्राणी की तुलना महाकवि जयशंकर प्रसाद से मत कीजिए।वे मेरे प्रिय कवि हैं।उनकी रचनाओं की छाप मेरे अंतर्मन पर गहरी है।बस कुछ अनगढ़ सा लिख देती हूँ।आप की उत्साह जनक प्रतिक्रिया के लिए सहृदय आभार 🙏🙏🌹😊

      हटाएं
  2. बेहद मार्मिक एव हृदयस्पर्शी सृजन सखी,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 02 मार्च 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह! अद्भुत अभिव्यक्ति अभिलाषा जी। बधाई और आभार!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 आपकी प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई।सादर

      हटाएं
  5. दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना, अभिलाषा दी।

    जवाब देंहटाएं
  6. ढो रहा है भार तन का
    क्या हृदय को चिर प्रतीक्षित
    मर चुके मन को सम्हाले
    क्या लहर उसमें लहरती।।
    पीड़ित व्यथित मानवता का सटीक चित्रण।

    जवाब देंहटाएं
  7. सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर

    जवाब देंहटाएं
  8. प्राण का विचलित पतंगा

    ढूँढता लौ को भटकता

    हारता थकता नहीं पर

    शीश अपना है पटकता

    दीप का था गुल धुआँ भी

    टीस सी अंतस कसकती।।..बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यंजना.. लय और शब्दावली अप्रतिम ..समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी भ्रमण करें..सादर..

    जवाब देंहटाएं
  9. प्राण का विचलित पतंगा

    ढूँढता लौ को भटकता

    हारता थकता नहीं पर

    शीश अपना है पटकता

    दीप का था गुल धुआँ भी

    टीस सी अंतस कसकती।।

    बहुत सुन्दर रचना....

    जवाब देंहटाएं

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