चिंगारी कब है दहकी



टूटे टूटे सपने मन के

आस चिरैया कब चहकी

भूख जलाती सदा रुलाती

चाल जीव की फिर बहकी।


बात बड़ी सब लगती झूठी

बर्तन खाली बजते जब

हाड़ तोड़ते कंकालों के

प्राण पीर से सजते तब

हाथ जोड़ते शीश पटकते

पत्थर सुनते कब सिसकी।।


सूर्य उगा कब उनके आँगन

चाँद चला चकमा देकर

मेघ हथौड़े बरसाते हैं

पवन चली चाबुक लेकर

ऋतुएं बदली बीती घडियाँ

फुलवारी भी कब महकी।।


फटी गूदड़ी तन पर छाले

बंधुआ नियति के बनते

काल बना बैठा है धुनिया

सदा रहा उनको धुनते

जीवित लाशों के अंदर पर

चिंगारी कब है दहकी।।


अभिलाषा चौहान

स्वरचित मौलिक


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर !
    महाकवि दिनकर की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
    श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं,
    माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़े की रात बिताते हैं ---'

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  2. अति सुंदर.....बेहद मार्मिक सृजन सखी ,सादर नमन आपको

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  3. आपकी हृदयस्पर्शी रचना को नमन है,सादर शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं

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