पीड़ित होते हैं प्राण



युगों-युगों से सहते-सहते,

बनती नारी पाषाण।

पीते-पीते पीड़ा का घट,

पीड़ित होते हैं प्राण।


लेकर भार सृजन का जन्मी

कहते धुरी जीवन की

पुरूषों के पहरे पग-पग पे

बात सुनी नहीं मन की

होते गए चीथड़े मन के

लगते हिय पे जब बाण।।


पुरूष बना सर्वस्व हमारा

तो रंग जीवन आए

साथ छूटता है जब उसका,

सब बेरंग हो जाए

सागर सा विचलित अंतर्मन,

समझे जग बस चट्टान।


साध-साध मन बनती साध्वी

किसी ने कब ये जाना

मार-मार कर इच्छाओं को

हँसना और मुस्काना

लक्ष्मण रेखाएँ साथ चली

पर हुआ कभी कब प्राण।



अभिलाषा चौहान

स्वरचित मौलिक













टिप्पणियाँ

  1. अति सुंदर भावपूर्ण सृजन प्रिय अभिलाषा जी।
    सादर

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  2. नारी जीवन को रेखांकित करती भावपूर्ण सार्थक रचना..

    जवाब देंहटाएं
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    1. सहृदय आभार प्रिय जिज्ञासा जी🙏🌹 सादर

      हटाएं
  3. नारी मन की त्रासदी । कोई नहीं उसके मन को समझ पाया । सुंदर प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीया संगीता जी ,आपको अपने ब्लाग पर पाकर मैं धन्य हुई।आपकी प्रतिक्रिया उत्साह जनक है।सादर

      हटाएं
  4. सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की भारतीय नारी को मीरा और महादेवी के युग से आगे बढ़ कर अपनी पहचान बनानी होगी.
    अब ख़ुद रुदन करने के स्थान पर उसे हर आततायी को, हर दमनकारी को, रोने को और बिलखने को विवश करना होगा.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय वास्तव में इतना आसान है क्या?
      मैं ये नहीं कहती समय नहीं बदला,सोच नहीं बदली,नारी अपने उत्थान के लिए प्रयत्नशील है,पर आज भी कट्टरपंथी परिवारों में नारी को इतना महत्व नहीं दिया जाता।आज भी बालिकाएं शिक्षा से वंचित हैं।आज भी बेटी को पराया धन माना जाता है।आज भी भ्रूण हत्याएं हो रही है।नारी को भोग्या मानने वाला समाज अपने दृष्टिकोण को कहां बदल पाया है।

      आपकी विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।आपकी प्रतिक्रिया मंथन करने को प्रेरित करती है इसी तरह उत्साह जनक प्रतिक्रिया देते रहिए। सादर

      हटाएं

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