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टाले-टाले कहीं टली

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अनहोनी होकर रहती है टाले-टाले कहीं टली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली। जीवन सुख-दुख के पाटों में पिसता है घुन के जैसा कठपुतली सा नाच नचाता काल बना यम है ऐसा पटरी पर आते-आते ही गाड़ी फिर से उतर चली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। तप्त रेत सा लगता जीवन संकट नित झुलसाते हैं मृगमरीचिका में उलझे कब सुधा ढूँढ कर लाते हैं गर्म हवा फिर तोड़ हौसले निर्मम सी हो आज चली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। शीतल ठंडी छाँव मिले कब सपना मन में पलता है आग उगलता दिनकर देखो अँधकार मन छलता है हार गया जो रणभूमि में भटके नित ही गली-गली आशंकाएँ जाल बिछातीं खुशियाँ जातीं सदा छली।। अभिलाषा चौहान 

खेले रोज पहेली

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राजनीति की चालें होती कैसी मैली लाभ उठाएँ सबका। खेले रोज पहेली। वोट सगा है इनका वादे इनके झूठे निर्धन देखें सपने देव रहें बस रूठे भूखों की बस्ती में ट्रक शराब उड़ेली। भूख राक्षसी बनती कैसे लड़ता निर्बल सिक्कों की खनखन से बन जाता है दुर्बल सत्ता की चौसर पर पाँसे सी बन ढेली। धर्म जाति को जब ये ढाल बनाकर लड़ते दीन बेचारा सोचे भाग्य हमारा गढ़ते उनकी झोली खाली भरते अपनी थैली। बढ़ती झोपड़ पट्टी भूखे अधनंगे बच्चे आँख मूँद ये बैठे बने कान के कच्चे चमक सफेदी छाई काया कितनी मैली। अभिलाषा चौहान 

कब रघुनंदन आ पीर हरें

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  व्यथित वियोगिनी हैं जानकी कब रघुनंदन आ पीर हरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। घड़ियाँ लगती सदियों जैसी धरती अंबर क्यों हुए विलग नदिया के दो बने किनारे ये मिलन अधूरा जाने जग अम्बुधि की लहरें उद्वेलित उमड़-घुमड़ देखो नैन झरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। आस मिलन की जाग रही है जब पवन सुनाती संदेशा सूर्य-चंद्र भी दिखें प्रफुल्लित फिर कब आएगा पल ऐसा एक मिलन के साक्षी बनकर अखिल भुवन के संत्रास तरें हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर दरें। वारिध हठी बँधे कब बंधन सब पत्थर तल में डूब चले राम-नाम की महिमा अतुलित जब जाना उसने हाथ मले बाँध उर्मियाँ फिर सागर की नलनील सेतु निर्माण करें। हनुमत लेकर गए निशानी यह सोच-सोच मन धीर धरें। अभिलाषा चौहान

आज महोत्सव अवध मनाए

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युगों-युगों की पूर्ण प्रतीक्षा दूर हुआ जो दर्द सहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। मनमंदिर में बसा हुआ था सपना एक अनोखा सा रामलला कब अवध पधारें आनंद आए चोखा सा आशा की उजली किरणों से घोर तमस का किला ढहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। सरयू के घाटों पर गूँजे रामलला के जयकारे द्वार-द्वार पर सजते तोरण भक्त झूमते हैं सारे आनंदित तन-मन है सारा शब्दों से जो नहीं कहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा। बर्षों की अब प्यास बुझेगी दिवस सुखद ये आया है तीन लोक के स्वामी ने अब पद अपना फिर पाया है आज महोत्सव अवध मनाए दीवाली सा चमक रहा घर-घर दीप जले खुशियों के चंदन सौरभ पवन बहा।। अभिलाषा चौहान 

और कैसे रोक पाऊँ

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चिर प्रतिक्षित प्राण को अब और कैसे रोक पाऊँ है विह्वल जो प्राण मेरा प्रीत धुन क्यूं गुनगुनाऊं!! दूर नभ पर चाँद चमके,चाँदनी मुझको जलाती। आस का पंछी उड़ा ले,अश्रु भीगी देख पाती। कौन हो तुम हो कहाँ पर,ये नयन जो ढूँढ पाते। रूप अपना तुम छिपाए,क्यों मुझे यूँ तुम रुलाते। खेलते हो खेल नव नित मैं तुम्हें कैसे मनाऊँ बुझ रहे अब आस दीपक तेल बिन कैसे जलाऊँ!! व्यर्थ से संसार में अब,छा रहा गहरा अँधेरा। बंधनों से मुक्त होकर,तोड़ दूँ ये मोह घेरा। लौ प्रतिपल क्षीण होती,डूबती नैया किनारे। खो गई पतवार मेरी,पंथ कोई अब सँवारे। टूटता विश्वास पल -पल काश इसको जोड़ पाऊँ स्वप्न धूमिल हो गए सब चैन भी अब तो गवाँऊ। पात तृण तरुवर सुमन ये,झूमते और मुस्कुराते। खग विहग भी नीड़ अपने,देख कैसे चहचहाते। सूर्य किरणें भी धरा को,आभ स्वर्णिम दे रहीं हैं। और मलयानिल सुगंधित,देख चहुं दिस नित बही है। मूढ़ मति मैं देखती सब, वेदना में डूब जाऊँ श्रेष्ठ समझूँ स्वयं को मैं शीश किसको मैं नवाऊं?? क्षीण सा अस्तित्व मेरा,चाहता है लक्ष्य पाना। लक्ष्य का न भान मुझको,ना पता किस ओर जाना। प्यास बुझती ही नहीं है,सामने है गंगधारा आंख पर पर्दा पड...

बात रही इतनी

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शूल चुभोकर पूछ रहे  खुशी मिली कितनी पैरों के नीचे भी अब धरा कहाँ अपनी। खटमल से चिपके हैं रुधिर पिएं तन का और मुखोटा पहने वे सब भोलेपन का भूख लोभ की बढ़ती चाह बढ़ी जितनी जब कुचल रहे पैरों में दीनों के सपने में  आग लगाकर सुख में बनते हैं अपने  नदी नाव से पूछ रही  लहरें हैं कितनी... दंभ बोलता सिर चढ़कर बाहुबल का जोर  कानों में कब पड़ता है  अन्याय का शोर  मौसम से सुर बदले हैं बात रही इतनी... अभिलाषा चौहान  (चित्र गूगल से साभार)