पौध
पौध
नीति नियम संस्कारों की
पौध
हमारी संस्कृति सुविचारों की
धीरे-धीरे
मरती जा रही है
जंगली खरपतवार
उग रही है जगह-जगह
जंगलियत का पनपना
बताता है हमें
हमारा अतीत
वो अतीत जिसे
हमने संस्कार,नीति-नियम
के सुंदर उपवन में
छिपा दिया था कभी
लेकिन....?
जहर कभी मरता क्या
अब वही जहर सशक्त बन रहा है
जहरीली पौध
उर्वरता को कर रही नष्ट
पक्की बंजर जमीन पर
कहाँ फूटते अंकुर
नहीं खिलते सद्भावनाओं के फूल
जगह-जगह उगते देखा मैंने
जंगली बबूल को
जिसके कांटे नश्तर से चुभते हैं
जो नहीं देता छाया
जिसमें नहीं लगते फल
परोपकार के
अब तो हर ओर बस
पनप रहें हैं ये जंगली पौधे
स्वार्थ लोभ छल मद के बीज
घर के भीतर भी
मैंने इन्हें उगते देखा है
नई पीढ़ी
ये जंगली बबूल
दे रहे नित समस्याओं को जन्म
बेशर्मी से पनपती यह पौध
छीन रही मानवीयता की सुंदरता
हम बेबस से देख रहे हैं
हमने ही की है गलती
समय रहते नहीं दिया ध्यान
उगने दिया इस जंगली पौध को
जिसने मूल्यों को रख दिया है ताक पर
बेशर्म सी यह जंगली पौध
सिर उठाए बढ़ती जा रही है
बेबसी इस कदर बढ़ गई है
इन्हें हटाने की कोशिश में
खुद ही जख्म खा रहे हैं लोग
टूटते रिश्ते,बहते आंसू,दरबदर वृद्ध
लुटती मर्यादा
जंगलियत की सफलता
सख्त जमीन में सद्भावना के बीज
कैसे बोएं जाएं
कि फिर से उगे संस्कारों के फूल
रिश्तों के मूल्य
बहे सद्भाव की हवा
सिर उठा कर जिए मानवता।
अभिलाषा चौहान
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog
सहृदय आभार सादर
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 सितंबर 2025 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
सहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंसुंदर रचना, जिसने देख लिये बबूल के पेड़, कम से कम वे तो नहीं उगायेंगे और, वे बोयेंगे सद्भावना के बीज, और समय के साथ वे भी बड़े होते जाएँगे, सजग होकर देखना ही तो है
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
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