नमी







नमी सूख रही है 

वो नमी 

जो बेहद जरूरी है 

तभी पनपते हैं बीज

दया के ,करुणा के 

तभी फूटता है अंकुर 

प्रेम का,सद्भाव का

इस सूखती नमी से 

बंजर हो रही भूमि

हृदय की..

लग रही है दीमक

मूल्यों में, संस्कारों में 

स्वार्थ की दीमक

चट कर जाती है रिश्ते

इन खोखले तनों में 

नहीं उगती जीवन की कोंपल

नहीं खिलते फूल

सर्वनाश की आहट 

हर रोज सुनाई देती है 

दहलीज़ों के अंदर

अब उजाड़ सा है जीवन

बाड़े में बंधे पशुओं की तरह

लड़ते-झगड़ते दूसरों की क्षति

में अपना लाभ ढूंढने की

संस्कृति सिर चढ़ रही है

मर्यादा की सीमाएं 

उफनती वासना की नदी

नित तोड़ रही है

टूटती सड़कों से

हो गए हैं रिश्ते 

सड़कें जो खुद टूटी हैं

असहाय सी

देखती बदहाली 

स्वसुख से बड़ा धर्म

शायद अब कोई नहीं है 

गीता का ज्ञान 

कर्म करो ,फल की चिंता मत करो

अंगीकार कर

बिना सोचे-विचारे लोग

कर रहे कुत्सित कर्म

पाषाण हृदय में 

नहीं है कोई निर्झर

नमी के अभाव से

पनप रहे हैं मरुस्थल 

जिनमें उगे बबूल

नहीं देते छाया

मिलते हैं शूलों का दंश......?


अभिलाषा चौहान 






टिप्पणियाँ

  1. बेहद गहन भाव लिए सुंदर अभिव्यक्ति।
    सस्नेह
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ अगस्त २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार श्वेता जी आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणादायक है।सादर

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सवैया छंद प्रवाह

मनहरण घनाक्षरी छंद

सवैया छंद- कृष्ण प्रेम