खरपतवार....!!
खरपतवार
यूं ही उग जाती है
अपने आप
इसे हटाने की
तमाम कोशिशें भी
हो जातीं नाकाम
मेरे अंतस की भूमि पर
खरपतवार ने
बना ली है अपनी जगह
इसको हटाने में
हो गई हूं मैं असफल
उदासी की इस
खरपतवार ने धीरे-धीरे
भावों की फसल को
कर दिया है नष्ट
अब नहीं उगती कोई अनुभूति
ना खिलते हैं कविता पुष्प
टिड्डी दल से
नकारात्मक विचार
खिलने से पहले ही
उर्वर भूमि को
बना देते हैं बंजर
बंजर भूमि की नीरसता ने
दूर-दूर तक फैली
उजाड़ जीवन भूमि में
नीरवता को दे दिया है आश्रय
विचारों के बादल
बिना बरसे निकल जाते हैं
हरीतिमा कहां दिखती है अब
कंक्रीट के जंगलों में
ये कंक्रीट
मन को भी पथरीला बना रहे हैं
नमी का अभाव
शुष्क उष्ण हवा
रिश्तों के रसीले पन
रेतीला बना रही है
मुट्ठी में कहां टिकती है रेत
फिसल जाती है
फिसल रहा है हाथों से सब कुछ
भ्रमित हूं मैं
क्यों पनप रहा है रेगिस्तान
क्यों नहीं है नदियों की कल-कल
क्यों सूख गए आंखों के अश्रु स्त्रोत
क्यों निनाद नहीं करते भाव
क्यों उड़ गए पखेरू
खाली सूने पिंजरे
कह देते हैं कहानी
ये दुनिया है बेमानी....!!
अभिलाषा चौहान
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में बुधवार 04 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंमन की व्यथा का यह करुण रुप भी भावों की गहन अनुभूति को अभिव्यक्त कर जाती है ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है।
हटाएंभावपूर्ण सुंदर सृजन, कभी-कभी ऐसा लगता है पर भीतर ही भीतर कल-कल धारा प्रेम की बहती ही रहती है
जवाब देंहटाएंजी सखी बिल्कुल सही कहा यही बात हम सबको आगे बढ़ने को प्रेरित करती है। सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंअत्यंत मर्मस्पर्शी रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है सादर
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