कालचक्र की ऐसी आँधी



कालचक्र की ऐसी आँधी

बंद हुए मन के वातायन

सूने-उजड़े घर के आँगन

झींगुर करते रहते गायन।।


श्रम का उचित प्रबंधन हो जब

यौवन मूल्य-संस्कृति से जुड़े

हो उत्थान सभी ग्रामों का

ये हवा गाँव की ओर मुड़े

किंचित मात्र क्लेश दे विचलन

रोक ग्राम से आज पलायन

सूने-उजड़े घर के आँगन

झींगुर करते रहते गायन।।


हरे-भरे खेतों में जब-जब

पड़ती सूखे की मार बड़ी

आग उदर की बुझती कैसे

प्रतिभा सोचे यह खड़ी-खड़ी

बाँध पोटली निकल पड़ी फिर

प्रतिदिन घर में मचे कचायन

सूने-उजड़े घर के आँगन

झींगुर करते रहते गायन।।


मायावी सी चमक-दमक में

स्वार्थ हुआ जब मन पर हावी

चमक चाँदनी ऐसी भाई

भूल गए सब अपना भावी

चकाचौंध शहरी जीवन की

बनती जाती है नित डायन

सूने-उजड़े घर के आँगन

झींगुर करते रहते गायन।।


अभिलाषा चौहान




टिप्पणियाँ

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-7-22) को सोशल मीडिया की रेशमी अंधियारे पक्ष वाली सुरंग" (चर्चा अंक 4488) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी मेरी रचना को चयनित करने के लिए

      हटाएं
  2. आपकी कविता के भाव को शब्दों के परे जाकर गहराई से समझा जाना चाहिए अभिलाषा जी। वस्तुतः ग्रामीण आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था यदि सभी के लिए शोषणमुक्त व सुख-समृद्धि से परिपूर्ण जीवन सुनिश्चित करते हुए सुचारु रुप से चले तो न केवल ग्राम बचें, वरन पशुधन का भी जीवन surakshit हो एवं कई अन्य समस्याओं के भी समाधान का पथ प्रशस्त हो जाए। अभिनंदन आपका।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय,आपकी प्रतिक्रिया सदैव मुझे उत्साहित करती है।

      हटाएं
  3. शहर की और पलायन करते गाँव के वासियों की मजबूरी और शहरों की झुठी चमक की तरफ आकर्षित होते ग्रामिणों की मनोदशा पर सुंदर सटीक व्यंजनाएं लिए अप्रतिम नव गीत।

    जवाब देंहटाएं
  4. मन द्रवित हो गया पढ़कर, सराहनीय सृजन सखी।
    सादर

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