होकर फिर संग्राम रहे

छलना छलती सत्यनिष्ठ को कितने अत्याचार सहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। रौद्र रुप धर खड़ी चण्डिका लहू से होली खेल रही जननी जन्मभूमि है रोती हृदय वेदना उमड़ बही कूटनीति के फेंके पासे धर्म-नीति के किले ढहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। एक वृक्ष की डाल खिले थे दो रंगी ये पुष्प कभी आँखों से अंधे बनकर ये भूल गए मर्यादा भी शूल बने चुभते हैं हिय में घृणा-द्वेष में प्रेम बहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। चंदन की शाखों पर जैसे लिपट रहे हों सर्प कई एक जीव पर टूट पड़े सब कपट चलाए रीति नई एक निहत्था पड़ा समर में अर्जुन पुत्र पुकार कहे चौसर के पाँसों में उलझे होकर फिर संग्राम रहे।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक