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अगस्त, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बात छोटी -सी

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तने ने  सभी शाखाओं को मजबूती से थाम रखा था भ्रम था उसे अपने अस्तित्व पर भूल गया था जड़ को उपेक्षित जड़ कुंठा में रोगी बन गई  लग गई दीमक और सूखने लगा तना भी जड़ और तने की निर्बलता  शाखाओं पर बिजली सी गिरी अधर में लटकी शाखाएं  जड़ और तने के बिना एक पल में बिखर गई  सूख गया रस नहीं बची पनपने की राह पड़ गई अलग-थलग  जीवन के लिए  दोनों ही जरूरी है  ये शाखाओं ने उस दिन जाना जिन्हें गुरुर में  कभी अपना ना माना...!! 2. तना  तना हुआ...!! अपनी मजबूती पर इतरा रहा था; शाखाओं को देखकर मुस्करा रहा था; अहम से भरा अपने वजूद की अहमियत बता रहा था; जड़ बेचारी,दबी,सहमी,उपेक्षिता  मौन होकर सब देख रही थी; इनकी अज्ञानता पर  मन ही मन रो रही थी; जिनको सहेजने में लुटा बैठी सब वह तेज अपना खो रही थी..!! अपनी जड़ों को भूलकर  भला कोई कैसे पनप सकता है?  यह सत्य तब साक्षात हुआ...! जड़ की निर्बलता से तने की जड़ता खोने लगी...!! शाखाएं वजूद के लिए  लड़ने लगीं...!! उस दिन अहसास हुआ..; बिना जड़ के भला कौन  खास हुआ...? बात छोटी सी थी पर मन उदास हुआ..!! आज हम अपनी जड़ों को भूले हैं , तने हुए हैं पर झूठे वजूद पर फूलें हैं। निर

बेटी का दर्द

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मुझे जन्म मत देना मां ...!! ये संसार मेरे लिए नहीं कुचल देना मुझे कोख में ..!! नियति मेरी बस यही तुम मुझे बचा नहीं पाओगी, ढाल मेरी बन नहीं पाओगी, चिंता में जियोगी मर-मर कर, विष पियोगी भर-भर कर, मसल देना अपने हाथों से  मिलेगी तसल्ली तुम्हें ...!! मेरे नुचे हुए बदन को देख नहीं पाओगी...!! अपने सपनों को लुटने से रोक नहीं पाओगी...!! तुम अबला हो मां , मैं हूं निर्बल ..!! काली या दुर्गा तो तब बनूंगी..? जब राक्षसों के पंजों से बचूंगी..? कहां भटकोगी पाने को न्याय..?  कैसे पूरा करोगी अपना दाय..? मुझे जन्म ना देना मां ....!! लुटती है जब कोई बेटी ..?  बन जाती है सबके लिए मौका..! हैवानियत का खेल आज तक किसी ने नहीं रोका..? ये झिलमिलाती मोमबत्तियां , ये प्रोटेस्ट, ये राजनीतिक दांव-पेंच , आधे-अधूरी जांच...?? मैं लुटकर मरकर बन जाती हूं एक गेंद ...?? जिसे सब उछालते हैं , अपने अवसर तलाशते हैं...!! मुझे यूं नहीं जीना ...! मुझे यूं नहीं मरना...! तुम्हीं अपने हाथों से मसल देना  मुझे जन्म ना देना मां...!! बेटी के अपराधी ' खुल्लम-खुल्ला घूमते है ...!! न्याय को अपने कदमों  में रौंदते हैं ...!! हर पल लुटती

ये कैसा परिवेश है...??

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वो निश्चिंत थी स्वयं को मानकर सुरक्षित  कर रही थी निष्काम कर्म...!! कहां पता था उसे... किसी की नजर उस पर गड़ी थी लहुलुहान निर्जीव वो पड़ी थी...! काम में अंधे बाजों के पंजों में फंसी चिड़िया सी फड़फड़ाई थी मेमने सी मिमियायी थी मांगी थी भीख आबरू की पर वह उनके लिए थी मांस का लोथड़ा  जिसे नोचते-खसोटते उन जानवरों ने कब सोचा कि यह जिंदा है  यह भी किसी की बेटी है  किसी की बहन है ...!!! कहां से आ गए इतने नरभक्षी घर ,गली , चोराहों पर शिकार की तलाश में डोलते इंसानियत को तराजू में तोलते  इनकी निगाहों में उम्र  के कोई मायने नहीं ...!! महीने भर की हो साठ साल की पर्दे में हो या बेपर्दा  इनके लिए तो वह मांस का  लोथड़ा है  देखते ही टपकती है इनकी लार गिद्ध सी निगाहें  नोंच लेना चाहती है उसका वजूद ये जानवर  जिनसे नहीं सुरक्षित  मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे  इंसाफ के मंदिर  अस्पताल के कमरे इनकी बढ़ती तादाद  हर गली इनसे आबाद क्यों नहीं पकड़ पाते इन्हें  नहीं कर पाते पिंजरों में बंद ये मांस के लोथड़ों के शौकीन,हवस के अंधे क्यों घूमते हैं शान से क्यों हर पल होती  एक बेटी की मौत...?? जिसका जिम्मेदार कौन हैं  ये ज

योगदान कीजिए ...!!

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१. जन-जन झूम रहा,प्रेम हिय गूँज रहा। देश की स्वतंत्रता का, उत्सव मनाते हैं। वीर शौर्य गाथा सुने,पथ बलिदान चुने। शहीदों को श्रद्धा पुष्प,सबही चढ़ाते हैं। तिरंगे का मान रखें,भारत की शान रखें। नमन ऐसे वीरों को,सब किए जाते हैं। धन्य यह मां भारती, करते सब आरती। वीर सपूत जिसके,पीठ न दिखाते हैं। २. देश प्रेम मन बसे,कटि जन-जन कसे। विश्व गुरु भारत का, गुणगान कीजिए। धर्म जाति भेद-भाव,मत खेलो यह दांव। भाई-चारा प्रेम बढ़े,भाव मन लीजिए। नारियों का मान रख, बेटियों का ध्यान रख। उन्नत समाज बने,काम ऐसा कीजिए। तरुणों को रोजगार, संस्कारों का हो प्रसार। देश नव निर्माण में, योगदान दीजिए। अभिलाषा चौहान 

आ गई कैसी घड़ी...!!

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एक कली कोमल सी टूट कर बिखरी पड़ी फूल बनने से ही पहले आ गई कैसी घड़ी  कौन है वो दरिंदे जो थे इतने बेरहम पंखुड़ियां नोचते हुए  ना उन्हें आई शरम  स्वप्न बिखरे उस कली के झर गईं आंसू लड़ी  रो रहे पौधे सभी वो जिनकी थी वो लाड़ली दर्द में थी चीखती वो जो कभी नाजों पली कौन बैठे घात में थे  आंख किनकी थी गड़ी कितना तड़पी वो कली जब नोंच कर फेंका गया वो दरिंदे जानवर थे  जिनमें करुणा ना दया वहशियों ने रौंद डाला टूटी साँसों की कड़ी। अभिलाषा चौहान 

मनहरण घनाक्षरी छंद

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      "मन हरण घनाक्षरी छंद" विधान- मनहरण घनाक्षरी छंद  वर्णिक छंद है।इ समें मात्राओं की नहीं,वर्णोंअर्थातअक्षरों की गणना की जाती है।8-8-8-7वर्णों पर यति होती है अर्थात अल्प विराम का प्रयोग होता है। चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु होना अनिवार्य है।इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।गेयता इसका गुण है। छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर किया गया है।जिसके हिंदी में चार अर्थ होते हैं- 1. मेघ/बादल,  2. सघन/गहन, 3. बड़ा हथौड़ा 4. किसी संख्या का उसी में तीन बार गुणा हैं। छंद में चारों अर्थ प्रासंगिकता सिद्ध करते हैं। घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होना चाहिए कि मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घनाक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो.घनाक्षरी पाठक / श्रोता के मन पर प्रहार सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है। घनाक्षरी वर्ण क्रम  2 2 2 2   2 3 3   3 3 2 वर्ण क्रम ऐसा होना चाहिए।  2 3 2/ 323 का प्रयोग इसमें वर्जित है। १. मेघ छाए काले-काले,घनघोर मतवाले।