जोड़ा कितना मेला






जोड़ा कितना मेला,

जग का सभी झमेला।

पर काम नहीं कुछ आया,

फिर भी पड़ा अकेला।


ये रिश्ते नाते झूठे,

क्यों माने इन्हें अनूठे।

सब स्वार्थ के हैं साथी,

वक्त पड़े सब रूठे।


छोड़ो चिंता सारी,

माया तलवार दुधारी,

इसमें उलझोगे जितना,

संकट झेलोगे भारी।


कर्तव्य निभाओ अपना,

पर देखो क्यों ये सपना।

उम्मीदों से दिल टूटे,

फिर दुख पड़ता है सहना।


जीवन नश्वर ये सारा,

दुख का सागर ये खारा।

मृत्यु शाश्वत सत्य है,

सबको बनना है तारा।


ईश कृपा जब होगी,

मानो खुद को सुखभोगी।

चिंता करके क्यों सूखे,

बनते हो दुख के रोगी।


ये दुख खुद तुमने बोया,

लालच मन में था सोया।

सब मेरे अपने हो जाएं,

पर मन का चैन ही खोया।


मन करता है मनमानी,

तन बूढ़ा हार ना जानी।

तन-मन की इस उलझन में,

जीवन होता बेमानी।


बस सच है तो वो पल है,

जो सुख से जीया कल है।

रोना किसको सुनना है,

सब उम्मीदों का छल है।


अंत समय तू अकेला,

पीछे छूटे जग मेला।

तू जोड़-तोड़ में उलझा,

जाएगा संग कब धेला ?


रोते-रोते जग में ही आया,

बचपन खुशियां ही लाया।

फिर तूने दुख ही पाले, 

सच भूला मन भरमाया।


चिड़िया से सीखो जीना,

बच्चों से ना उड़ना छीना।

तुम उनको बांधों बंधन में,

तो कष्टों को फिर पीना।


अभिलाषा चौहान 

टिप्पणियाँ

  1. जीवन दर्शन को चित्रित करती शांत रस की उत्कृष्ट रचना.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति अभिलाषा जी।
    जीवन रेला दुनिया झमेला
    जबतक साँसें तबतक मेला
    सस्नेह
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ मार्च २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

      हटाएं
  4. जीवन का बोध देतीं सार्थक पंक्तियाँ

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार अनीता जी आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

      हटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं

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