हो रही कितनी क्षति





विकास के बढ़े चरण

सभ्यता है बलवती

दुराचार के राज में 

गौण हो गई संस्कृति 


कौन जाने किस घड़ी

तन को कौन नोच ले

गिद्ध मोर एक से 

कैसे मन ये सोच ले

घात में सियार भी

ये समाज की गति..


युगों-युगों से चल रही

रीति एक बस यही

नारी तन को भोग लो

लक्ष्य एक बस यही

ताक पर नियम धरे

फिर चली इनकी मति..


मुर्दों का समाज है 

या लोग ही मुर्दा बने

गैर तो बस गैर हैं

रिश्ते धूल में सने

हैं पतन की राह पर

हो रही कितनी क्षति..


धर्म जाति शीर्ष पर

इंसानियत रो रही

है धरा भी हांफती

मैल किसके ढो रही

स्वर्ण सी आभा गई

बन रहे सब अधिपति..


मुर्दों को जिंदा किया

जिंदों को मुर्दा किया

घृणा द्वेष बीज रोप

अपनों को जुदा किया

लकीर के फकीर सब

बढ़ रहीं बस विकृति..



अभिलाषा चौहान 




टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (30-07-2023) को   "रह गयी अब मेजबानी है"    (चर्चा अंक-4674))   पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 31 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    जवाब देंहटाएं
  3. सहृदय आभार आदरणीया सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार कव‍िता...वाह अभ‍िलाषा जी

    जवाब देंहटाएं
  5. 'कौन जाने किस घड़ी

    तन को कौन नोच ले

    गिद्ध मोर एक से

    कैसे मन ये सोच ले

    घात में सियार भी

    ये समाज की गति..' - बहुत दर्द भर दिया है आपने इन हृदयस्पर्शी पंक्तियों में... अद्भुत रचना!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  7. मार्मिक बात . अब इसी दशा को बदलना है .

    जवाब देंहटाएं

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