हालत पतली जीवन जर्जर
छलक रही है मन की गगरी
नयनों से नित गिरते निर्झर
भावों के अंकुर मुरझाए
हृदय भूमि जब हो ना उर्वर
जलते जग में जले वेदना
तप्त धरा के सूखे उपवन
करुणाकर की करुणा सोई
टूट पड़े हैं आफत के घन
बिन मोती के सीप आवारा
बिन पानी के प्यासे सरवर...
तोड़ किनारे बहती नदियां
पर्वत अपनी व्यथा बताएं
आंखों के अंधे सब देखें
उनसे तो पाषाण लजाएं
भौतिकता की चकाचौंध में
सत्य झूठ पर होता निर्भर...
पीड़ा जिसकी वो ही जाने
पर हित धर्म की बातें झूठी
सभ्य समाज का लगा मुखौटा
जाने कितनी नींदें लूटी
सुख की सब परिभाषा भूले
हालत पतली जीवन जर्जर....
अभिलाषा चौहान
वो तो कहते हैं -
जवाब देंहटाएं'India is shining !'
वैसे सावन के अंधे को सब हरा-हरा ही दिखाई देता है.
जिनका स्वयं का जीवन हरा-भरा हो ,वे उजड़े घरों का दुख क्या समझेंगे।आपकी त्वरित प्रतिक्रिया के लिए आभार आदरणीय सादर
हटाएंकितना कुछ कह दिया आपने हर लाइन में दर्द छुपा है
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंसच है सखी ,सुख की परिभाषा ही बदल गई है ..बहुत खूबसूरत सृजन......
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 27 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएं'आंखों के अंधे सब देखें, उनसे तो पाषाण लजाएं' और 'पीड़ा जिसकी वो ही जाने, 'परहित धर्म की बातें झूठी'; इस कविता का एक-एक शब्द किसी संवेदनशील हृदय पर मर्मान्तक प्रहार करता है। असाधारण काव्य-सृजन, निस्संदेह।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया पाकर सृजन सार्थक हुआ आदरणीय।जब भी आप ब्लॉग पर आते हैं और ऐसी प्रेरक टिप्पणियां करते हैं तो मन उत्साहित हो उठता है।आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा रहती है।आपका सहृदय आभार सादर प्रणाम
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