हो रही कितनी क्षति

विकास के बढ़े चरण सभ्यता है बलवती दुराचार के राज में गौण हो गई संस्कृति कौन जाने किस घड़ी तन को कौन नोच ले गिद्ध मोर एक से कैसे मन ये सोच ले घात में सियार भी ये समाज की गति.. युगों-युगों से चल रही रीति एक बस यही नारी तन को भोग लो लक्ष्य एक बस यही ताक पर नियम धरे फिर चली इनकी मति.. मुर्दों का समाज है या लोग ही मुर्दा बने गैर तो बस गैर हैं रिश्ते धूल में सने हैं पतन की राह पर हो रही कितनी क्षति.. धर्म जाति शीर्ष पर इंसानियत रो रही है धरा भी हांफती मैल किसके ढो रही स्वर्ण सी आभा गई बन रहे सब अधिपति.. मुर्दों को जिंदा किया जिंदों को मुर्दा किया घृणा द्वेष बीज रोप अपनों को जुदा किया लकीर के फकीर सब बढ़ रहीं बस विकृति.. अभिलाषा चौहान