जीवन के दोराहे पर
जीवन के दोराहे पर
लक्ष्य तक मुश्किल पहुंचना
आंख में अंबुद बसा है
कैसे संभव है किलकना।
विवशता बंधन बनी
रास्ते शूलों भरे हैं
घाव मन के टीस देते
आज भी वैसे ही हरे हैं
छटपटाती मीन जैसे
प्राण का मुश्किल निकलना।
शून्यता डाले बसेरा
हास्य अधरों से छिना है
केंचुली रिश्तों की उतरे
हार को सबने गिना है
धूप तन को है जलाए
चांदनी में भी झुलसना।
भोर धुंधली आस की जब
बादलों से दुख बरसते
कौन है वो है कहां पर
नैन जिसको हैं तरसते
है पथिक भटका हुआ जो
उसका संभव है फिसलना।
अभिलाषा चौहान
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 मई 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंसुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंविरह की अग्नि तो प्रेम-पथिक को तपा कर कुंदन बनाती है, उसे भटकाती नहीं है.
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंवाह... अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंवाह!सखी ,बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंजी बहुत उम्दा ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंआपकी कविता तो सदैव की भांति प्रशंसनीय ही है। प्रथम अंतरे की छंदबद्धता में सुधार संभव है।
जवाब देंहटाएंआपकी कविता सराहनीय योग्य है।
जवाब देंहटाएं🙏🏼🙏🏼🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🙏🏼🙏🏼