जीवन के दोराहे पर

जीवन के दोराहे पर लक्ष्य तक मुश्किल पहुंचना आंख में अंबुद बसा है कैसे संभव है किलकना। विवशता बंधन बनी रास्ते शूलों भरे हैं घाव मन के टीस देते आज भी वैसे ही हरे हैं छटपटाती मीन जैसे प्राण का मुश्किल निकलना। शून्यता डाले बसेरा हास्य अधरों से छिना है केंचुली रिश्तों की उतरे हार को सबने गिना है धूप तन को है जलाए चांदनी में भी झुलसना। भोर धुंधली आस की जब बादलों से दुख बरसते कौन है वो है कहां पर नैन जिसको हैं तरसते है पथिक भटका हुआ जो उसका संभव है फिसलना। अभिलाषा चौहान