कितने विवश हैं हम
खेत में खड़ी फसल पर
ओलों की मार
आकाश में उड़ते बादलों
से बारिश की मनुहार
बीज बुआई के बाद
बारिश की आस
नदियों के सिमटते आकार
दरकते पहाड़ों का हाहाकार
व्यग्र धरा की पुकार
प्रकृति का रौद्रावतार
सूखे कुओं में प्यासी बाल्टियां
पोखर में तरसती मछलियां
झोंपड़े में धधकती भूख
आग की लपटों में
भस्मीभूत खलिहान
फुटपाथ पर फैले हाथ
मखमली गद्दों पर करवटें
एसी में टपकता पसीना
तपती धूप में श्वेद से शीतल तन
थैले भर पैसों में मुट्ठी भर
जरूरतें
अस्पताल की चौखट पर
सांसों का संग्राम
सड़कों पर मंडराती मौत
कितने विवश हैं हम
सत्य को नकारते
स्वयं से हारते
झूठ का मुखौटा लगाए
जिंदगी को तिजोरी में बंद कर
कर रहें हैं संग्राम
जिंदगी के लिए
कितने विवश हैं हम
कुछ भी नहीं है...!
पर सब कुछ होने का करते हैं ढोंग
सत्य को अनदेखा कर
भरते श्रेष्ठता का दंभ
कितने विवश हैं हम ....??
अभिलाषा चौहान
भोगवादी संस्कृति व घटते मूल्यों ने अंधाधुंध विकास को जन्म दिया है , जिसने वैश्विक तापन , आत्मीयता , संवेदनहीनता , स्वार्थपरता , आध्यात्मिक शून्यता को बढ़ाया है ।
जवाब देंहटाएंमानवीय चेतना को जगाने वाली कविता।
सहृदय आभार
हटाएंसत्य को नकारते ,स्वयं को हराते झूठ का मुखौटा लगाए जिन्दगी तिजोरी में बंद ..सामापिक रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (११-०५-२०२३) को 'माँ क्या गई के घर से परिंदे चले गए'(अंक- ४६६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंबेचारा सुख-सुविधा संपन्न व्यक्ति इंसानियत का ढोंग, पाखण्ड करने को विवश है. इसी पाखण्ड के कारण वह अपनी लूट के माल का एक हिस्सा (भले ही वह बहुत छोटा हो) दान-पुण्य में खर्च करने के लिए विवश है.
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंवाह!सखी सुंदर और सटीक।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंसत्य को नकारते
जवाब देंहटाएंस्वयं से हारते
झूठ का मुखौटा लगाए
जिंदगी को तिजोरी में बंद कर
कर रहें हैं संग्राम
जिंदगी के लिए
कितने विवश हैं हम
बहुत सटीक एवं विचारणीय
हृदयस्पर्शी सृजन
वाह!!!
सहृदय आभार सखी सादर
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