दूर हो सारा अंधेरा





रेत का उठता बवंडर

फूस के तिनके उड़ाता

टूटता तटबंध मन का

साथ अपना छोड़ जाता।


शब्द सारे शून्य होते

मौन लिखता है कहानी

नैन प्यासे कुएँ जैसे

ढूँढते दो बूँद पानी

दर्द का सागर उमड़ता

चैन कैसे कौन पाता।


खोल दो अब राज सारे

धो चलो अब मैल मन का

बीज रोपो प्रेम के अब

भार उतरे आज तन का

दूर हो सारा अँधेरा

सूर्य जब है मुस्कुराता


पीत पत्ते शाख पर अब

झर रहे हैं पुष्प सारे

आग लगती है वनों में

दूर होते हैं किनारे

और अंबर हँस पड़ा फिर

प्यास धरती की बुझाता।


अभिलाषा चौहान 


टिप्पणियाँ

  1. अति सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. बीज रोपो प्रेम के अब
    भार उतरे आज तन का
    दूर हो सारा अँधेरा
    सूर्य जब है मुस्कुराता
    .. बहुत बढ़िया

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर नवगीत सखी प्रकृति के भिन्न पहलूओं को दर्शाता।
    सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
  4. खोल दो अब राज सारे

    धो चलो अब मैल मन का

    बीज रोपो प्रेम के अब

    भार उतरे आज तन का
    वाह!!!!
    लाजवाब नवगीत ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्नेहिल और प्रेरणादायक प्रतिक्रिया हेतु सहृदय आभार सखी सादर

      हटाएं

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