जिसे देख छाता उल्लास
पर्वतों के कपाट खोल
सद्यस्नाता रश्मियाँ
झाँकती घूँघट की ओट से
शनैं शनै पग बढ़ाती वधू सी
धानी पांवड़ों पर
छोड़ती पगों की छाप
लिए स्वर्ण कलश
करती गृहप्रवेश
देख उस नवौढ़ा को
लेता अंगड़ाई जीवन
करता अगुवाई
बिखर जाता स्वर्ण सुख चहुंओर
खनकते कंगनों
बजते नुपुरों से
गूँज उठता घर का हर कोना
उसके रूप के उजास से
देदीप्यमान घर आंगन
उसकी मुस्कराहट से
खिलते सुमन
बिखरता मंकरद
उस कामिनी की झलक
पाने को आतुर
झरोखों से झांकते नयन
वृक्ष भी संगीतज्ञ से
छेड़ देते ताल
पंछी करते स्वागत गान
मनोरम वातावरण में
आती वह शनै शनै वधू सी
छिड़कती मंगल कुमकुम
खेतों में झूमती फसलों को
हौले-हौले सहलाती
गाती गुनगुनाती गीत
जिसे देख छाता उल्लास।
अभिलाषा चौहान
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-12-22} को "दरक रहे हैं शैल"(चर्चा अंक 4625) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुन्दर सृजन सखी !
जवाब देंहटाएंझाँकती घूँघट की ओट से
जवाब देंहटाएंशनैं शनै पग बढ़ाती वधू सी.... सुन्दर
सहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंझाँकती घूँघट की ओट से
जवाब देंहटाएंशनैं शनै पग बढ़ाती वधू सी
धानी पांवड़ों पर
छोड़ती पगों की छाप
लिए स्वर्ण कलश
करती गृहप्रवेश
वाह!!!!
बहुत सुंदर मनमोहक सृजन।
प्रकृति की अद्भुत छटा को अपने अंक में समेटे है आपकी कविता अभिलाषा जी...वाह
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
हटाएंसुंदर कविता
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
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