रूप अपना ही गँवाया

प्राण पिंजर में तड़पता प्रीत रोती है अभागी जाल माया ने बुना फिर कौन बनता वीतरागी। राख की ढेरी बनी फिर आग जो मन में लगी थी भावना पाषाण बनती जंग फिर तन में पगी थी घिर रही थी रात काली चाँदनी भी छूट भागी।। कीच काया में भरी थी पंक को कब देख पाया लोभ का भँवरा बना फिर रूप अपना ही गँवाया प्यास फिर भी न बुझी तो झूठ की तब तोप दागी।। साँझ की बेला खड़ी थी काल कहता जग अभागे पाप के भरता घड़ा अब देह ने श्रृंगार त्यागे लक्ष्य गव्हर साधता सा फिर भ्रमित सी पीर जागी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक