चेतना कैसे जगाओ

सुप्त हैं संवेदनाएँ चेतना कैसे जगाओ बन चुके पाषाण हैं जो पीर उनको मत सुनाओ। बोलती ये लेखनी भी आज हिम्मत हारती है प्राण नीरस हो गए हैं प्रीत भी धिक्कारती है सो रहें हैं भाव मन के गीत कैसे गुनगुनाओ।। बात मन की सुन सके जो है भला अब कौन ऐसा दूरियों को पाट दे जो प्रश्न ये अब शून्य जैसा मौन की भाषा पढ़े जो कौन पाठक है दिखाओ।। आज हिय में है उदासी आस भी मरती हुई है वेदना हलचल मचाती बात ये तो अनछुई है हो चुकी निस्तेज सी जो वह कलम कैसे चलाओ।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक