बहता नीर हूं मैं !!

बहता नीर हूं मैं !
हृदय की पीर हूं मैं !
कभी बन सरिता,
बहा बन पावन निर्मल।
करता सिंचित जीवन,
कभी बना मैं निर्झर,
करूं धरा को उर्वर।
जीवन का अमृत !
सृष्टि की जान !
प्रकृति की मुस्कान !
गाता मेघ मल्हार,
मुझसे ही मेघों का श्रृंगार,
नवजीवन का सृजनकार,
वसुधा का पालनहार,
बहता नीर हूं मैं !!
कभी बना मैं सागर,
कर समाहित,
संसार की समस्त पीड़ा !
खो गई मेरी मिठास,
पीड़ा के अतिरेक से,
अश्रुओं के वेग से,
घुल गया मुझमें छार ।
खो रही निर्मलता मेरी,
कलुषित होती ,
मेरी हर बूंद।
नयनों से बहता नीर,
नीर की बढ़ी है पीर,
प्रदूषित हो गया हूं मैं!
बहते-बहते चुक गया हूं मैं!
खत्म हो रही जिजीविषा।।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. खो गई मेरी मिठास,
    पीड़ा के अतिरेक से,
    अश्रुओं के वेग से,
    घुल गया मुझमें छार ।
    सुन्दर प्रस्तुति ।अनेकों शुभकामनाएं आदरणीय अभिलाषा जी।

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    उत्तर
    1. कृपया मुझे आदरणीय न कहें ,आपका अनुसरण
      कर रहें हैं हम जैसे नवोदित।आपकी रचनाएं उच्च
      कोटि की और उत्तम होती हैं।बस अपनी प्रतिक्रियाएं देकर समय -समय पर मार्ग दर्शन करें
      हृदय तल से आभार आपका आदरणीय

      हटाएं

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