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कुछ खरी-खरी

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  दोहा मुक्तक विधान- मुक्तक में प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ पद समतुकांत एवं तृतीय पद अतुकांत होता है।प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंत में पूर्ण विराम तथा तृतीय चरण के अंत में योजक चिन्ह अल्प विराम(,)अथवा( - )लगता है । ओछे बोलें बोल जो,अहित करें निज देश। धर्म-जाति मतभेद का,बना रहे परिवेश। जन के मन विष घोलते,हो इनकी पहचान, लाज-शर्म सब बेचकर,फूट डालते देश। वाणी मीठी बोलिए, नहीं करें अपमान । उत्तम रखिए आचरण,तभी मिले सम्मान। परनिंदा विष से बड़ी, मिले नहीं संतोष, अपनी छवि सुधारिए,रखिए इसका ध्यान। मुद्दा बनता वोट का,झूठे बोलें बोल। कड़वी बातें बोलते, बातों में है झोल। देश हित सोचें नहीं,ओछी इनकी सोच, दूजे की निन्दा करें,पहले खुद को तोल। धर्म-जाति अब वोट का,पीटे जो नित ढोल। देश कहीं दिखता नहीं,देखो बातें तोल। अपना उल्लू साधते,करें नहीं कुछ काम, अनुगामी इनके सदा,देखें आँखें खोल। तू-तू-मैं-मैं में हुआ,देश का बंटाधार। काम कभी करते नहीं,वोट बने अधिकार। संविधान ले हाथ में,कहते कड़वी बात। अपनी करनी से मिले, इन्हें सदा ही हार। नीति नियम की धज्जियाँ,सदा उडाते लोग। मन में विष इनके भरा,लगा वोट का ...

कुंडलियाँ छंद

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 .     विधान एक दोहा +एक रोला छंद से बने छंद को कुंडलियां छंद कहते हैं। इसमें छह चरण होते हैं।दोहा के विषम चरणों में १३-१३ और सम चरणों में ११-११मात्राएं होती हैं समचरण सम तुकांत होते हैं रोला के विषम चरणों ११-११ मात्रा चरणांत २१से होता है।सम चरणों १३-१३मात्रा होती हैं  चरणांत २२ से होता है। १.महिमा महिमा मंडन कर रहे,सत्ता की है चाह। ओछी बातें कर सदा,जन की रोकें राह। जन की रोकें राह, करें बस दोषारोपण। धर्म-जाति मतभेद,करें सबका ये शोषण। देख दशा निज देश,घटाते उसकी गरिमा। बीज फूट का डाल,बताते खुद की महिमा। २. महिमा मेरे देश की, अद्भुत अतुल अपार। राम-कृष्ण बसते यहाँ,ज्ञान भूमि आगार। ज्ञान भूमि आगार,वेद पुराण श्री गीता। रामचरित गुणगान,कृष्ण की भक्ति पुनीता। कहती अभि कर जोड़,बढ़ाएँ इसकी गरिमा। संस्कृति का रख मान,विश्व में बढ़ती महिमा। ३.बालक बालक संस्कारी बनें,रखें हमेशा ध्यान। चलें सदा सद् मार्ग पर,और बनें गुणवान। और बनें गुणवान,लक्ष्य मनचाहा पाएँ। उत्तम रखें चरित्र,देश का मान बढ़ाएँ। कहती अभि हिय बात,यही भावी के पालक। करें राष्ट्र निर्माण,बनें ऐसे सब बालक। ४ बालक नीं...

गणेश वंदना

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मनहरण घनाक्षरी १. लम्बोदर एकदंत,पूजें तुम्हें भक्त-संत, विघ्न हर्ता श्री गणेश,घर में पधारिए। रिद्धि-सिद्धि शुभ-लाभ,अनोखी तुम्हारी आभ , मंगल मूर्ति मोरया, जीवन सुधारिए। मंगल कर्ता विघ्नेश,अनुपम रूप-वेश पाप सब क्षमा कर,संकट निवारिए। वक्रतुंड बुद्धिनाथ,चरण नवाते माथ मोदक लगाते भोग,दास को स्वीकारिए। २. गौरी सुत गणराज,प्रथम पूज्य सत्काज, विनती यह दास की,दया अब कीजिए। विघ्न विनाशक आप,स्मरण से मिटें शाप।, मंगल मूर्ति मोरया, बुद्धि हमें दीजिए। मूढ़ मति लोभी हम,भक्ति भाव नहीं दम, क्षमा मूर्ति पाप हर,शरण ले लीजिए। लड्डू दूर्वा पान प्रिय,दीन हीन बसें हिय, दर्शन वंदन कर,रूप रस पीजिए। दोहा मुक्तक  प्रथम पूज्य करते नमन,तुमको बारंबार। विघ्न विनाशक अब करो, भक्तों का उद्धार।  हे गौरी सुत गजानन,कृपा दृष्टि हो आज,  हे गणेश विनती यही,पाएं सुख संसार।। , सोरठा छंद १ संकट सारे दूर,कर देते विघ्नेश हैं। भक्ति भाव में चूर,भक्त करें जयकार हैं। २. प्रथम पूज्य विघ्नेश,घर-घर सदा विराजते। मिटते उसके क्लेश, दर्शन इनका जो करें । ३. वक्रतुंड विघ्नेश,विनती करते आपसे। प्रथम पूज्य सर्वेश, बुद्धिनाथ संकट हरो।...

नमी

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नमी सूख रही है  वो नमी  जो बेहद जरूरी है  तभी पनपते हैं बीज दया के ,करुणा के  तभी फूटता है अंकुर  प्रेम का,सद्भाव का इस सूखती नमी से  बंजर हो रही भूमि हृदय की.. लग रही है दीमक मूल्यों में, संस्कारों में  स्वार्थ की दीमक चट कर जाती है रिश्ते इन खोखले तनों में  नहीं उगती जीवन की कोंपल नहीं खिलते फूल सर्वनाश की आहट  हर रोज सुनाई देती है  दहलीज़ों के अंदर अब उजाड़ सा है जीवन बाड़े में बंधे पशुओं की तरह लड़ते-झगड़ते दूसरों की क्षति में अपना लाभ ढूंढने की संस्कृति सिर चढ़ रही है मर्यादा की सीमाएं  उफनती वासना की नदी नित तोड़ रही है टूटती सड़कों से हो गए हैं रिश्ते  सड़कें जो खुद टूटी हैं असहाय सी देखती बदहाली  स्वसुख से बड़ा धर्म शायद अब कोई नहीं है  गीता का ज्ञान  कर्म करो ,फल की चिंता मत करो अंगीकार कर बिना सोचे-विचारे लोग कर रहे कुत्सित कर्म पाषाण हृदय में  नहीं है कोई निर्झर नमी के अभाव से पनप रहे हैं मरुस्थल  जिनमें उगे बबूल नहीं देते छाया मिलते हैं शूलों का दंश......? अभिलाषा चौहान 

कान्हा अब तो आजा

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कान्हा अब तो दर्श दिखा जा मेरी बिगड़ी तू ही बना जा मैं ढोता पाप की गठरी जग भटकूँ  राह बता जा अब कितनी परीक्षा मेरी मिलने में कितनी देरी भव डूब रही मेरी नैया ज्ञान की जोत जला जा मैंने पाप किए नहीं सोचे बस बात यही मन कोंचे मन में छाया अँधियारा  तम घेरे दुख मोहे दोंचे तूने दानव कितने मारे गोकुल के भाग संवारे मैं भाव भक्ति ना जानूँ अँखियन अश्रु के धारे जब काल खड़ा मेरे आगे भय लगता प्राण भी भागे तब याद मुझे तुम आए हम कितने बड़े अभागे मैंने रो रो तुझे पुकारा  स्वार्थ का जीवन सारा तुम दानी दीन दयालु  मैं फिरता मारा मारा हे बाल कृष्ण जगदीश्वर  जग पीड़ित है विश्वेश्वर  मद माया मोह सतावे तू अपना रूप दिखा जा तुम भाव भक्ति के भूखे हम पापी भाव भी सूखे पर तेरे ही हम बालक दे दर्शन गलती भुला जा हे कान्हा अब तो आजा... अभिलाषा चौहान 

आजादी का महापर्व

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आजादी के महापर्व पर हो बस ये संकल्प हमारा गगन चूमता रहे तिरंगा उन्नत भारतवर्ष हमारा। बलिदानों की बलि वेदी पर जो आजादी हमने पाई अपने-अपने सुख में डूबे उसकी गरिमा आज भुलाई कर्म निष्ठ बन करें समर्पण  विश्व विजयी हो देश प्यारा गगन चूमता....................।। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई आओ हम ये भेद भुला दें मातृभूमि हो सबको प्यारी कटुता के सब बीज गला दें  एक सूत्र में बँधे ये माला आशा साहस सत्य सहारा  गगन चूमता...................।। प्रेम अहिंसा करुणा का पथ सबसे उत्तम और निराला देशप्रेम हो सबसे ऊपर मित्र भाव मन हृदय विशाला धीर वीर बनकर उत्साही निज गौरव जग में विस्तारा  गगन चूमता.....................।। अभिलाषा चौहान