बस पतझड़ बाकी है.....



मिट सकता है क्या कभी अंतर 

स्त्री-पुरुष का..!

तुम्हें है अहम सर्वज्ञता का

मैं अज्ञ सदा से

मेरा विज्ञ होना 

तुम्हें झकझोरता है.!

तन जाते हैं तुम्हारे नथुने

पड़ जाती हैं तुम्हारे

भवों में सिलवटें

गुर्राहट तुम्हारी

अचानक से मुझे

दिलाती है याद

वीरान जंगल में

एकत्र हिंसक जानवरों की।

उनमें खो जाती है तुम्हारी पहचान

डर जाती हूं मैं

जब घिर जाती हूं इतने

हिंसक जानवरों से..!!

मिटेगा अंतर कभी समझ का

मैं झुकती जाती हूं

मिटाती अपना अस्तित्व

तुम्हें समझने में...और तुम

और ऊंचे होते चले जाते हो...!

बन जाते हैं हम दो छोर

कैसे मिटेगा अंतर...!!

ताली दो हाथों से बजती है

कमी सामंजस्य की

समर्पण की

बना देती है नदी के दो 

किनारे.…!!

जो चलते हैं साथ

पर मिलते नहीं कभी

पुरुष-स्त्री प्रतीक हैं

अर्धनारीश्वर का

मैं-तुम का विलय

देता है सृष्टि को नवरुप

यही सत्य,यही शिव,यही सुंदर है

जो मात्र है एक स्वप्न

हम बने हैं दो ध्रुव

सिमटे हुए खुद में

ख़ो दिया है हमने जीवन का

बसंत बस पतझड़ ही बाकी है।



अभिलाषा चौहान 





टिप्पणियाँ

  1. तुम्हें है अहम सर्वज्ञता का

    मैं अज्ञ सदा से

    मेरा विज्ञ होना

    तुम्हें झकझोरता है.!
    बहुत सटीक...
    कितना कुछ बदल गया पर ये सत्य नहीं बदल रहा...
    लाजवाब सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 5 जून अप्रैल 2024को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

      हटाएं
  4. सचमुच बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

      हटाएं
  5. उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

      हटाएं

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