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मुर्दे

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अभी तक सुना था कि होता है नरक...!! मैंने देखा नरक को...!! रिश्तों के नाम पर जुटे स्वार्थी लोग अपनी लोभ-पिपासा के लिए  लाश के पास चिल्लाते समझ से परे मरा कौन था....? वो जो भूमि पर पड़ा था जड़ निर्जीव...!! या जो लड़ने को खड़ा था आत्मा से रहित निर्जीव  भावनाशून्य....!! मैं अवाक...? संवेदनाशून्य इस जगत में  चिता की अग्नि पर स्वार्थ की रोटियां सेंकते ये मुर्दे आज  हर घर में मौजूद हैं ..!! जिनके अंदर बसा है मरुस्थल जिनकी अंदर की नदी सूख गई है...!! पेट की आग इनके लिए  इतनी बड़ी है...!! लाश भी इनके सवालों  पर बेबस पड़ी है ...!! सिसकती है मृतात्मा  इन पापियों के लिए  मैंने क्या कुछ ना किया क्यों ना स्वार्थी बन जिया ये क्या जाने किसी का दर्द पत्थर से भी गए-बीते संस्कार से रहित भौतिक संपत्ति का लालच बना देता है इन्हें अंधा ये अंधे जौंक बनकर  चूसते हैं रक्त और एक दिन मर जाते हैं  इनका जीवन नहीं आता किसी के काम ये मुर्दे जो स्वर्ग को  बना देते हैं नरक....?? अभिलाषा चौहान 

क्या भूलूं क्या याद करूं!!

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क्या भूलूँ क्या याद करूं  कैसे मन में अब धीर धरुं सूना जग सूना मन  तुमसे पाया जीवन धन  छाया बनकर साथ रहे पीर कहे अब किससे मन। क्या भूलूं.................? छूटा ममता का आंचल  क्रूर कठिन आया ये पल छिना पिता का भी साया छलक रहे आंसू छल-छल। क्या भूलूं....................? सागर दुख का लहराया छाई अमावस की छाया खड़ी अकेली सोचूं मैं  हे प्रभू कैसी ये माया!! क्या भूलूं......................? मां की ममता क्या छूटी खुशियां सारी सब रूठी पिता बिना बेवश सी मैं विपदाएं आकर टूटीं !! क्या भूलूं........................? जीवन लगता तपती धूप सूख गए अब मन के कूप टूट गए सारे बंधन जग ने दिखाया ऐसा रूप!! क्या भूलूं.........................? मात-पिता सा प्रेम कहां  लुटा-लुटा सा लगे जहां  रीता-रीता सा है जीवन कौन करे भरपाई यहां !! क्या भूलूं........................? रिश्तों के कड़वे रूप दिखे जिनमें स्वारथ के लेख लिखे इंसान का कितना मोल यहां  जिंदों में मुर्दे खड़े दिखे!! क्या भूलूं.......................? हृदय में जिनके लोभ गड़ा आंखों में मद भी रहा अड़ा पत्थर भी जिनसे शर्मिंदा शव रोए देखो वहीं पड़ा। क्या भूलूं...