कोई कैसे खिलखिलाए

छाँव की अब बात झूठी धूप कैसी चिलचिलाए आग में सब सुख जले जब कोई कैसे खिलखिलाए। कौन देखे दर्द किसका स्वप्न पंछी मर रहें हैं भावनाएँ शून्य होती घाव से मन भर रहें हैं नेत्र कर चीत्कार रोए नाव जीवन तिलमिलाए। खोखला तन है थका सा माँगता दो घूँट पानी स्वार्थ का संसार कैसा ठोकरों से बात जानी रात काली घेर बैठी प्राण कैसे बिलबिलाए। आँधियों का दौर कैसा तोड़ता सारे घरोंदे शूल हँसते आज देखे फूल कैसे देख रौंदे और मंजिल खो गई जब आस कैसे झिलमिलाए।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'