भूल चुके क्या याद दिलाना!!


टूट रही साँसों की डोरी
बिखर रहा सब ताना-बाना।

भूल-भुलैया में खोए सब
चमक चाँदनी भरमाती है
बिना शोर के टूटे लाठी
घाव नए देकर जाती है
खेल सत्य से आँख मिचौली
मृगतृष्णा का जाल बिछाना
टूट रही साँसों की डोरी
बिखर रहा सब ताना-बाना।

बड़े-बड़े अभिमानी हारे
कालचक्र की चौसर ऐसी
मिट्टी में मिल गई सभ्यता
देख प्रलय आई थी कैसी
कहाँ बची सोने की लंका
कहाँ कृष्ण का रहा ठिकाना
टूट रही साँसों की डोरी
बिखर रहा सब ताना-बाना।

नहीं शाश्वत कभी भी जग में
दिखने वाली ये जो माया
मानव बाँध आँख पे पट्टी
करता रहता अपना-पराया।
कालचक्र निर्धारित करके
भूल चुके क्या याद दिलाना
टूट रही साँसों की डोरी
बिखर रहा सब ताना-बाना।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक


टिप्पणियाँ

  1. बहुत दर्द है सखी आपके सृजन में..मर्मस्पर्शी सृजन.

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  2. बड़े-बड़े अभिमानी हारे
    कालचक्र की चौसर ऐसी
    मिट्टी में मिल गई सभ्यता
    देख प्रलय आई थी कैसी
    कहाँ बची सोने की लंका
    कहाँ कृष्ण का रहा ठिकाना
    टूट रही साँसों की डोरी
    बिखर रहा सब ताना-बाना।
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब नवगीत।

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. उत्तम मर्मस्पर्शी ।
    सदर ।

    जवाब देंहटाएं

  5. नहीं शाश्वत कभी भी जग में
    दिखने वाली ये जो माया
    मानव बाँध आँख पे पट्टी
    करता रहता अपना-पराया।

    भावपूर्ण रचना सखी,सादर नमन







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  6. बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन दी ।

    जवाब देंहटाएं
  7. क्या बढ़िया लिखा हुआ लेख है। यह बहुत उपयोगी है ...

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  8. मैं वास्तव में आपके दृष्टिकोण से प्यार करता हूं। आपने अच्छा किया!

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