इक व्यथित सी व्यंजना
मौन वीणा सोचती है
राग का क्यूँ हुआ तर्पण
साधक साथ है नहीं अब
निज सदा से उसे अर्पण।
तार टूटे राग छूटे
हूँ उपेक्षित आज ऐसी
धूल खाती सी पड़ी हूँ
व्यर्थ के सामान जैसी
है नहीं अस्तित्व कोई
चुभता हो जैसे कर्पण
साधक साथ----------।।
साँस सरगम टूटती सी
प्राण पंछी फड़फड़ाए
इक अबूझी प्यास सी फिर
जागकर मुझको रुलाए
तोड़ बंधन आस का अब
व्यर्थ है तेरा समर्पण
साधक साथ-----------।।
ये विरह की वेदना है,
या कि जलती आग कोई
नींद आँखों से उड़ी है
जागती हूँ या कि सोई
इक व्यथित सी व्यंजना फिर
देख हँसती आज दर्पण
साधक साथ------------।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏
हटाएंवाह !बेहतरीन नवगीत आदरणीय दीदी
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन...बहुत ही सुन्दर
तार टूटे राग छूटे
हूँ उपेक्षित आज ऐसी
धूल खाती सी पड़ी हूँ
व्यर्थ के सामान जैसी
है नहीं अस्तित्व कोई
चुभता हो जैसे कर्पण
साधक साथ----------।।
हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति।
सहृदय आभार सखी 🌹🌹
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