संदेश

अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इक व्यथित सी व्यंजना

मौन वीणा सोचती है राग का क्यूँ हुआ तर्पण साधक साथ है नहीं अब निज सदा से उसे अर्पण। तार टूटे राग छूटे हूँ उपेक्षित आज ऐसी धूल खाती सी पड़ी हूँ व्यर्थ के सामान जैसी है नहीं अस्तित्व कोई चुभता हो जैसे कर्पण साधक साथ----------।। साँस सरगम टूटती सी प्राण पंछी फड़फड़ाए इक अबूझी प्यास सी फिर जागकर मुझको रुलाए तोड़ बंधन आस का अब व्यर्थ है तेरा समर्पण साधक साथ-----------।। ये विरह की वेदना है, या कि जलती आग कोई नींद आँखों से उड़ी है जागती हूँ या कि सोई इक व्यथित सी व्यंजना फिर देख हँसती आज दर्पण साधक साथ------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

साधना भी होगी पूरी

जल उठेगा दीप फिर से तम का मिटना है जरूरी। हृदय में संकल्प हो तो साधना भी होगी पूरी। ठंडी पड़ी इस राख में भी कोई चिंगारी तो होगी। फूँक से सुलगेगी जब ये चेतना झंकृत तो होगी। प्राण में फिर राग होगा विराग से होगी दूरी। निराशा के बादलों से सूर्य आशा का दिखेगा कालिमा के मध्य से जब चाँद भी खुलकर हँसेगा जिंदगी फिर पूर्ण होगी लग रही है जो अधूरी। हार कर चुप बैठ जाना काम मानव का नहीं है संकटों से पार पाना लक्ष्य जीवन का यही है साँस सरगम फिर बजेगी रह गई थी जो अधूरी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

आस कब रहती अधूरी

हो तिमिर कितना भयंकर आस से हो भले दूरी चमक जुगनू की सिखाती हार से हो जीत पूरी।। हार कर चुप बैठ जाना कबूतर सी बंद आँखें मुँह छुपा कर भाग जाना तने से ज्यों विलग शाखें है नहीं मानव का लक्षण साहसी होना जरूरी चमक-------------।। बिगड़ती-बनती सँवरती जो उठें जलधि में लहरें नाश की चिंता करें कब एक पल को भी न ठहरें तोड़ती तटबंध आकर आस कब रहती अधूरी चमक--------------।। नाश से निर्माण का क्रम चक्र चलता ये निरंतर बिखरते हैं श्वांस मोती लगे शून्य जीवन कांतर सृष्टि का विस्तार होगा रिक्तपन है फिर जरूरी चमक जुगनू की सिखाती हार से हो जीत पूरी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

सूना जीवन

कोमल कलियाँ पुष्पित कानन भ्रमर देख कर ललचाया आकर्षण में उलझा-उलझा फिरता रहता भरमाया।। हृदय बाँध के चला पोटली भावों से हीरे-मोती आशाओं के दीप जलाता प्रीत ढँके मुँह को सोती टूटे मन के टुकड़े बीने नयन नीर से भर आया। विरह वेदना सिर चढ़ बोली शूलों से आघात मिले फूलों की शैया थी झूठी पतझड़ के दिन साथ चले देकर पाषाणों सी ठोकर प्रेम कहाँ पर ले आया।। रिक्त भावना सूना जीवन उजड़ गए सारे सपने अंगारे सा दहका तन-मन काल-भुजंग लगा डसने भिक्षुक बनकर घूमा जग में सबने मिलकर ठुकराया। अभिलाषा चौहान 'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक